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सम्पत्ति का उपभोग।

सम्पत्ति ख़र्च किये बिना आदमी जी ही नहीं सकता। तथापि इनके लिए भी ज़रूरत से अधिक सम्पत्ति न ख़र्च करना चाहिए। खाने पीने की जितनी चीज़ें हैं सब का गुण अलग अलग है। किसी में शरीर को अधिक बलवान् और पुष्ट करने की शक्ति है, किसी में कम। यदि किसी एक प्रकार के भोजन से शरीर यथेष्ट बलवान् न हो, तो उससे अधिक क़ीमत भोजन करना बुरा नहीं। हाँ जितनी क़ीमत अधिक लगे उतना लाभ भी अधिक होना चाहिए। सुनते हैं शाही ज़माने में नवाब लोग मोती का चूना पान में खाते थे। अब यह देखना चाहिए कि जो काम साधारण चूने से होता है वही मोती के चूने से भी। फिर उसके खाने में क्यों व्यर्थ सम्पत्ति नाश की जाय? यदि ऐसे चूने से कुछ लाभ भी हो, तो भी वह उतना नहीं हो सकता जितनी अधिक सम्पत्ति उसकी प्राप्ति में ख़र्च होती है। इसी तरह जब रोटी, दाल, भात, तरकारी और दूध, घी से शरीर यथेष्ट बलवान् हो सकता है तब पुलाव और शराब-कबाव आदि में व्यर्थ सम्पत्ति फूँकना मुनासिब नहीं। साधारण भोज़न करने वाले असाधारण क़ीमत भोजन करने वालों से कम वलवान् नहीं होते। जो भोजन अच्छी तरह हज़म हो जाता है वही अधिक बलकारी होता है। कौन नहीं जानता कि सादा भोजन करने वाले परिश्रमशील देहाती, अच्छा भोजन करने वाले अमीर आदमियों से अधिक मज़बूत होते हैं? जब सादे भोजन से शरीर यथेष्ट पुष्ट हो सकता है तब सेरों बालाई चाटना सम्पत्ति का दुरुपयोग करना है।

कपड़ों में भी भारतवासियों का बहुत सा धन नाश होता है। अँगरेज़ों के सम्पर्क से हम लोगों में विलासिता घुस चली है। हम अपनी आमदनी बढ़ाने की फ़िक्र तो करते नहीं, पर अँगरेज़ों की नकल करके ख़र्च अधिक करते हैं। स्टेशन के जिस तार बाबू या कचहरी के जिस अहलमद की, तनख्वाह सिर्फ़ पन्द्रह रुपये है इसे आप चार रुपये का जूता और आठ दस रुपये की अचकन, या अँगरेज़ी काट का कोट, पहने देखिएगा। दूसरों को नक़ल करके वेश-भूषा में इतना ख़र्च करना इन लोगों की हैसियत के बाहर है। पर आदत कुछ ऐसी पड़ गई है कि चाहे जितनी तकलीफ़ें उठानी पड़े ठाठ नवाबी ही रहेगा। अँगरेज़ लोग यदि अच्छा खाते और अच्छा पहनते हैं तो पन्द्रह रुपये से सौ पचास गुना अधिक आमदनी भी उनकी है। फिर हम लोग उनकी नक़ल कैसे कर सकते हैं? हमारे पूर्वज सिर्फ़ एक धोती और

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