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सम्पत्ति-शास्त्र।

एक अँगौछे पर सन्तोष करते थे। हम आठ आठ कपड़ों से बदन लपेटते हैं! उधर देश में आबादी तो बढ़ रही है, पर उसके अनुसार व्यापार-व्यवसाय की वृद्धि नहीं। आमदनी तो कम है, पर ख़र्च अधिक। दरिद्रता बढ़ाने—सम्पत्ति का संहार करने—का इससे बढ़कर उपक्रम और क्या होगा? यह सम्पत्ति का उपभोग नहीं; उसका दुरुपयोग है; उसे व्यर्थ फूँकना है। आदमी को हमेशा अपनी हैसियत और अपनी आमदनी का पूरा पूरा ख़याल रखके सिर्फ़ वही और उतने ही कपड़े-लते आदि रखने चाहिए जिन की और जितने की ज़रूरत हो।

कुछ लोग शोभा, सुन्दरता और सुबुकपन पर मोहित होकर सम्पत्ति का बुरा उपयोग करते हैं—उसे वृथा कम करते हैं। जितने समय में काँच के दस ग्लास टूट जायँगे उतने समय में कांस, पीतल या फूल का शायद एक भी न टूटे। और यदि टूट भी जायगा तो आधी तिहाई क़ीमत उसकी ज़रूर वसूल हो जायगी। कांच के ग्लास व्यवहार करने में ख़र्च भी अधिक पड़ेगा और टूट जाने पर टूटे हुए टुकड़े कोई एक कौड़ी को भी न पूछेगा। अतएव दो तरह से हानि उठानी पड़ेगी। इस तरह की जितनी चीज़ें हैं उन्हें लेना सम्पत्ति का सत्यानाश करना है। कांच के सामान, खिलौने, सिगार और बाजे आदि कितनी हीं चीज़ें हैं जिनके लेने में भारतवासियों का करोड़ों रूपया नष्ट होता है। यदि धन की वृद्धि होती हो तो उसका थोड़ा बहुत व्यर्थ नष्ट होना भी विशेष हानिकर नहीं होता। पर धन की बढ़ती तो होती नहीं, घटती ज़रूर होती है। इँगलैंड में जितना धन उत्पन्न होता है उससे पाँच छः गुना अधिक पहले ही से वहाँ पूँजी के रूप में जमा रहता है। अर्थात् जितनी सम्पत्ति वहाँ ख़र्च होती है उससे कई गुना अधिक पैदा होती है—इतनी कि इँगलैंड वाले उसे ख़र्च नहीं कर सकते; वह और और देशों के काम आती है। जहाँ सम्पत्ति की इतनी अधिकता है वहाँ फ़िजूलख़र्ची भी हो तो विशेष आक्षेप की बात नहीं। पर हिन्दुस्तान ऐसे कंगाल देश में फ़िजूलख़र्ची करना, बस बैठे दरिद्रता बुलाना और भूखों मरने का सामान करना है।

जो स्वदेशी चीज़ें सस्ती, पर थोड़ेही दिन तक ठहरने वाली हैं उनकी अपेक्षा महँगी, पर मज़बूत विदेशी चीज़ें लेना बुरा नहीं। कल्पना कीजिए कि आपने २ रुपये में एक स्वदेशी ट्रंक ली। वह तीन वर्ष बाद टूट गई। अब