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सम्पत्ति का उपभोग।

यदि आपको ५ रुपये में एक विदेशी ट्रंक मिले, जो पन्द्रह वर्ष चले, तो आपको विदेशीही लेना चाहिए। सम्पत्तिशास्त्र के सिद्धान्तानुसार यही उचित है। सम्पत्ति को यथाशक्ति रक्षा करना—उसे कम होने से बचाना—बहुत ज़रूरी है। पर एक बात है। यदि स्वदेशी ट्रंक लेने, या उसकी क़ीमत कुछ अधिक देने, से पहले की अपेक्षा अधिक संख्या में अधिक मज़बूत ट्रंकें बनने की आशा हो तो वैसा करने में हानि नहीं। क्योंकि इससे स्वदेशी व्यापारियों और कारीगरों को उत्तेजना मिलेगी और टंकों का व्यापार-व्यवसाय चमकने से सारे देश को लाभ पहुँचेगा। यही नहीं, किन्तु कुछ दिनों में स्वदेशी ट्रंकें विदेशी ट्रंकों की तरह अच्छी और मज़बूत बनने लगेंगी। स्वदेशी वाणिज्य-व्यवसाय की उन्नति के लिए यदि कुछ अधिक देना पड़े तो अनुचित नहीं। चुक़न्दर की शक्कर पर जर्मनी की गवर्नमेंट जो "बौंटी" (Bounty) अर्थात् पुरस्कार देती है वह इसी लिए कि जर्मनी की शक्कर और और देशों में जाने लगे और उसका व्यापार चमक उठे। गवर्नमेंट जो यह "बौंटी" नामक सहायता देती है वह ठीक उसी तरह की सहायता है जिस तरह की कि ट्रंकों के व्यापारियों और कारीगरों को, उनके व्यापार-व्यवसाय को उन्नत करने के लिए, अधिक क़ीमत के रूप में दी जा सकती है।

खाने पीने की जो चीज़ें आदमी के रोज़ काम आती हैं उनके विषय में यह देखना चाहिए कि वे महँगी तो नहीं हैं। जो चीज़ें कभी कभी काम आती हैं वे यदि कुछ महँगी भी हों तो विशेष हानि नहीं, पर जिनका काम रोज़ पड़ता है उनके महँगी होने से बड़ी हानि होती है। उनके लेने में अपेक्षाकृत अधिक सम्पत्ति ख़र्च होती है। क्योंकि यदि एक पैसा भी रोज़ अधिक ख़र्च हुआ तो साल में ६ रुपये व्यर्थ गये समझने चाहिए। इस दशा मैं खाने पीने की सामग्री यदि अन्यत्र सस्ती हो, तो उसे अपने प्रान्त या अपने देश में पैदा न करके वहीं से मँगाना चाहिए। इँगलैंड को देखिए, वह गेहूं नहीं पैदा करता और यदि करे भी तो बहुत महँगा बिके और देश भर के लिए काफ़ी न हो। इसीसे वह हिन्दुस्तान और अमेरिका आदि से गेहूं मँगाता है और जो चीज़ें वह किफ़ायत के साथ पैदा कर सकता है उन्हें पैदा करके लाभ उठाता है। ब्रह्मा में चावल ख़ूब होता है और बंगाल मैं जूट। दोनों देशों को परस्पर एक दूसरे की चीज़ों की आवश्यकता पड़ती