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सम्पत्ति का उपभोग।

पलेगा—और उनकी सम्पत्ति यदि बढ़ेगी नहीं तो नष्ट होने से तो बचेगी। ऐसा करने से ख़ुद उनको भी लाभ ही होगा।

सम्पत्ति को फिज़ूल फुंक तापने या उसे गाड़ रखने से तो कम्पनी का काग़ज़, अर्थात् सरकारी प्रामिसरी नोट, ही ख़रीद लेना अच्छा है। इससे ख़रीद करनेवाले की सम्पत्ति भी बढ़ती है और देश को भी लाभ पहुँचता है। क्योंकि उस रुपये से गवर्नमेंट रेल, नहर, सड़क आदि बनाती है। इससे इंजिनियर, ठेकेदार, बाबू लोग, ख़लासी और कुली आदि को नौकरी मिलती है और एक जगह का माल दूसरी जगह आसानी से भेजा जाकर अधिक मूल्यवान् हो जाता है। अच्छे अच्छे बैंकों में रुपया लगाने से भी लाभ हो सकता है। इससे रुपया जमा करनेवाले को सूद मिलता है और बैकवाले महाज़नी करके रुपया कमाते हैं। व्यवसायी आदमी बैंकों से रुपया उधार लेकर बड़े बड़े रोज़गार करते हैं और देश की सम्पत्ति बढ़ाते हैं। अकारण सम्पत्ति ख़र्च करने, या उसे गाड़ रखने, की अपेक्षा बैंक में जमा कर देना, या उससे सरकारी प्रामिसरी नोट ख़रीदना, कहीं अच्छा है। कुछ भी हो, मनुष्य को अपनी सम्पत्ति का यथाशक्ति सदुपयोग करना चाहिए। उसे भोग-विलास में न वरबाद करना चाहिए।

ज़रूरत का ख़याल न करके सिर्फ़ भोगवासना तृप्त करने के लिए ही सम्पत्ति उड़ाना सम्पत्तिशास्त्र के नियमों के ख़िलाफ़ है। यहाँ पर इस बात के विचार की ज़रूरत है कि भोग-विलास में गिनती किन चीज़ों की है। इसका उत्तर यह है कि जो चीज़ जिस समाज में सर्वसाधारण समझी जाय, अर्थात् जिसके उपभोग का रवाज सा पड़ गया हो, वह भोग-विलास की चीज़ों में नहीं। उदाहरण के लिए पान-तस्बाकू का रवाज इस देश में सर्व-साधारण है। जिसे चार पैसे की आमदनी है वह यदि पान-तम्बाकू खाय तो उसकी गिनती भोग-विलास में नहीं। पर यदि कोई चाय या कॉफ़ी रोज़ पीने लगे तो उसकी गिनती भोग-विलास में ज़रूर है। क्योंकि उसका रवाज नहीं है। अब चीन के रवाज को देखिए। वहाँ दिन में कई दफे़ चाय पी जाती है। कोई किसी के घर मिलने जाय तो चाय पानी सेही उसका आदर किया जाता है। इसलिए वहाँ चाय पीना भोग-विलास में दाख़िल नहीं। इंगलैंड शीतप्रधान देश है। वहाँ वनियाइन, कमीज़, वास्कट, कोट, ओवर- फोट आदि से बदन ढकना और दो दो तीन तीन पायजामे पहनने की