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सम्पत्ति-शास्त्र।

ज़रूरत है। इस लिए इन चीज़ों में रुपया ख़र्च करना भोग-विलास नहीं। पर हिन्दुस्तान उष्ण देश है। यहाँ अँगरेज़ों की देखादेखी उन्हीं की तरह तीन तीन चार चार गरम कपड़े, गरमियों में भी, पहनना भोग-विलास है। इसे तो मूर्खता भी कह सकते हैं। क्योंकि इस तरह अधिक कपड़े पहनने से पहले कुछ दिन उलटी तकलीफ़ होती है। अपने देश की सामाजिक शिष्टता की रक्षा के लिए जो चीज़ें दरकार होती हैं उनके व्यवहार का नाम विलासिता नहीं। तदतिरिक्त चीज़ों का व्यवहार बिलासिता जरूर है; क्योंकि बिना उनके व्यवहार के भी कोई सामाजिक, शारीरिक या मानसिक हानि मनुष्य को नहीं उठानी पड़ती। मतलब यह कि देश, काल और अवस्था-भेद के अनुसार पदार्थों की गिनती विलास-द्रव्यों में होती है। जो लोग देश, काल और अवस्था का ख़ंयाल न करके अनपेक्षित और अनावश्यक चीज़ों में रुपया ख़र्च करते हैं वे अपनी सम्पत्ति का सम्पत्ति-शास्त्र-सम्मत उपभोग नहीं करते।

जिनकी आमदनी कम है उनको तो बहुत ही समझ बूझ कर सम्पत्ति का उपभोग करना चाहिए। जिनकी रोज़ाना आमदनी आठ दस आने या एक रुपया है उनके सिर पर फूल्ट कैंप, पैर में वारनिश किया हुआ वूट, और मुँह में टि्चनापली के सिगार यदि देख पड़ें तो समझ लेना कि लक्ष्मी जी इनसे रूठी हैं। इन्हीं से क्यों देश से रूठी कहना चाहिए। ये विलास-द्रव्य भद्रता—भलमनसी की सरटीफ़िकेट नहीं। जो अपना घर फूँक तमाशा देखता है, और साथ ही देश में भी विपत्ति की वृद्धि करता है, वह भला आदमी नहीं। इन चीज़ों में जो रुपया ख़र्च होता है, उचित रीति से उसका आधा ही ख़र्च करने से भद्रता की बहुत अच्छी तरह रक्षा हो सकती है।

इँगलैंड में जितना धनोत्पादन होता है उसका यदि आधा भी इस देश में होने लगे, और हमारे पूर्वज्ञ जिस सादगी से रहते थे उसकी आधी भी सादगी स्वीकार करके यदि हम उसके आगे न बढ़ें, तो हमारे दारुण जीवन-संग्राम की ज्वाला बहुत कुछ शान्त हो जाय, और वुभुक्षितों का लोमहर्षण आर्त्तनाद भी कम सुनाई पड़ने लगे। परमेश्वर करे ऐसा ही हो।