पृष्ठ:सम्पत्ति-शास्त्र.pdf/१९८

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हिन्दुस्तान को आर्थिक अवस्था का दिग्दर्शन । १७९ दूसरा परिच्छेद । हिन्दुस्तान की आर्थिक अवस्था का दिग्दर्शन | सम्पत्तिशास्त्र में वहुधा व्यापक सिद्धान्तहों का विवेचन किया जाता है। किसी देश विशेष से सम्बन्ध रखनेवाले सिद्धान्तों का विचार प्रायः कम किया जाता है । पर हमारी समझ में ऐसा ज़रूर होना चाहिए । सम्पत्ति शास्त्र का सम्बन्ध व्यवहार की बातों से हैं। अतएव व्यवहार की बातों में अन्तर होने से शास्त्रीय सिद्धान्तों में ज़रूरही अन्तर पड़ जाता है। फिर क्यों न प्रत्येक देश की व्यवस्था को अलग अलग विचार हो? इस तरह के विचार से जो देश सम्पत्ति में हीन है उसकी हीनता के कारण मालूम हो जाते हैं और उन्हें दूर करने में सुभौता होता है। इस देश की आर्थिक अवस्था हीन है। इसमें कोई सन्देह नहीं । इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि जिन बातों से देश की आर्थिक दशा सुधरती है उन सबको करना इस देशवालों के हाथ में नहीं। उनमें से बहुतैरी बात का राजा ने अपने हाथ में ले रखा है। जिसमें घह अपनी, अपने देश की, अपने देशवासियों की हानि समझता है उसे नहीं करता। फिर उससे चाहे हिंदुस्तान का कितनाद्दा लाभ प्यों न होता हो। 'इँगलिस्तान में ज़मीदारों के ज़मीन का लगान नहीं देना पड़ता। हिन्दु स्तान में देना पड़ता है और थोड़ा नद्द बहुत देना पड़ता है। फिर वह बीस बीस तीस तीस घर्ष बाद वह भी जाता है । यही नहीं, किसान और ज़मींदार दोनों चैदल भी कर दिये जा सकते हैं। हाँ बंगाल में इस्तिमगरी पन्दोबस्त हैं । वहां न बेदखली का डर है और न लगाने में इजाफे का । सरकार जमीन की जो मालगुजारी लेती हैं वह मज़दूरी आदि बाद देकर बची हुई पदाचार का आधा है। अर्थात् ५० ही सदी मालगुज़ारी सरकार को देनी पड़ती है। यह शरह मामूली फ़सल के हिसाब से धाँधी गई है। पर यदि फ़सल खराब जाती हैं तो भी प्रज्ञा के अकसर उतनीही भालगुजारी देनी पड़ती है जितनी कि अच्छी फसल होने पर देनी पड़ती । फिर यह ५० फ़ी सदी को शरह सब कहीं प्रचलित नहीं। कहाँ कहाँ ६० फ़ीं सदी तक लगान देना पड़ता है। और पट्यारी, चौकीदारी, स्कूल, शफ़ाखाने आदि