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व्यवसायी कम्पनियां अथवा सम्भूय-समुत्थान।

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परन्तु ऐसे कामों में रुपया लगानी छम लोग नहीं जानते । यद्'वात शिक्षित और अशिक्षित सभी लोगों में पाई जाती है। धम्बई और कलकत्त का शैड़ कर जहां व्यापार-व्यवसांयरूपी लता कुछ लहलहाने के लक्षण दिन्ना रही है, भारतवर्ष में अन्यत्र ऐसे बहुत कम कारखाने हैं जिन्हें हिन्दुस्तानी ही चलाते हों और अधिकतर चही इनके हिस्सेदार भी हों। यह बात व्यापार और व्यवसाय की वृद्धि में कंटक हा रद्दी है । इस लिए इसे. निकालने का बहुत जल्द यत्न करना चाहिए । इस शोचनीय अचस्या के मुख्य मुख्य कारणों का उल्लेख नीचे किया जाता है।

पाइला कारण यह है कि हम लोग स्पृश्य-धन ( Tangible IForm of (3toney) के बड़े प्रेमी हैं,-अर्थात् इम अपने धन के ऐसी अवस्था में रखना चाहते हैं जिसमें हम सदैव उसे अपनी आँखों से देंखते रहे-जिसमें हम सदैव उसे हुय से स्पर्श कर सकें। इस प्रेम की जड़ उस अशान्तिमय अराजकता के समय में पड़ी थी जव परस्पर मिल जुल कर व्यापार-व्यवसायं करने की प्रथा का प्रायः विलकुलही अभाव सा था । ठग, डाकुओं और पिण्डारियों के झुण्ड दिन दहाड़े लोगों की लूट लेते थे ! यहां तक कि छोटे छोटे ज़मींदार भी कभी कभी एक गाँव से दूसरे गाँव पर चढ़ाई किया करते थे और उसपर क़ब्ज़ा हो जाने पर उसे लूटलेते थे। कोई आश्चर्य की बात नहीं, यदि उस विपत्ति के समय में झोगों ने अपने धन की ज़मींदारी खरीदने में लगाना अच्छा समझा, जिसमें न इसे चोर' ले सकेंन डाकू लूट सकें। जो लोग जमींदारी न एवरीद सकते थे मैं अपने धन के पृथ्वी के पेट में छिपा देते थै, अथवा अभूिपण और मणिमुक्ताओं के रूप में अपनी असूमइया प्रियतमाओं की नज़र कर देते थे। वह लमयही वैसा था 1 लोग एक शहर से दूसरे शहर पहुँचना कठिन काम समझते थे । बड़ी बड़ी शहराहों पर भी डाकू लोग निडर घूमा करते थे। विदेश-यात्रा सहज वात न थी । उस समय अपने घर की छत तकै रहना और खेतो ओत कर निर्वाह करना अच्छा था। परन्तु अन्न कालचक्र घूम गया है। अब तो पारस्परिक सहायता के-मिल जुल कर काम करने के सूर्य का उदय हो आया है। अपच हम लोगों के अब अपनी पुरानी आदत छोड़ना चाहिं । अब गवर्नमेंट की कृपा से ऋग और पिण्डारी नामाचशेप हो गये हैं, गांवों पर चढ़ाइयां बन्द हो गई हैं, पक्की सड़कें बन गई हैं, रेले खुल गई हैं, डाक मैर तोर का प्रबन्ध हो गया है । 25