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व्यवसायी कम्पनियां अथवा सम्भूय-समुत्थान।

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लोगों ने सेाचा कि उस समय आज कल की सी अच्छी क न थी । इससे हिन्दुस्तानी आदमी केवल ऊपर ही ऊपर का सीना निकाल सके होंगे । फलों की मदद से नीचे का सेना आसानी से निकल ग्राबेगा । यह सम्भव भी था। वैर, कम्पनी खुली । चाइनाद की पहाड़ियों पर साहब लोगों के बँगले बनने लगे। खानों में काम देने वाली कुछ कले' भी आ गई। पहाड़ियों के पेट से सीना निकालने के लिए कुछ और कलें इंग्लैंड से रवाना हुई। झाम आरम्भ हो गया। ये कले' अभी रास्ते ही में थीं कि पहाड़ियों का पैट फाड़ कर जो देखा गया तेलानी नदारद ! सय और आर्तनाद होने लगा। रास्ते में पड़ी कलै' घहीं छोड़ दी गई । वे अब भी टूटी फूटी अवस्था में वहाँ पड़ी , हैं और पथिकों को इस घटना का स्मरण दिलाती हैं।

कांच, दियासलाई और कागज़ आदि बनाने के और भी बहुत से कारः खाने खुले और थोड़े ही दिनों में लोप हो गये ! तो भला ऐसे भयानक काम में केाई रुपया क्यों लगाचे १ रुपये के बदले माल रत्न कर, बिना किसी तरह के जरियम या खतरे के रुपया कमाना क्या बुरा है ? इस पर ज़रा विचार की जरूरत है । विचार करने से यथार्थं बात ध्यान में आ जाती है। साने की खानों में तो बहुत लोग नै कम्पनी के चालाक सिद्'-साधकों की चिकनी चुपड़ी बातों में मा फर रुपया दे दिया था। फिर, साना निकालने का व्यवसाय आशापूर्ण होने पर भी बड़े खतरे का है। क्योंकि पहले से ही यह अनुमान कर लेना कि ख़ान में कितना सेना है, असम्भव है। पर कायले की स्लान में पहले ही से यह अन्दाज़ कर लिया जा सकता है कि इसमें कितने हज़ार या लाख मन केायला है। खानि में सेना रगों की तरह फैला रहता है। इससे उसकी लकीरों का पता लगाना सहज नहीं। पर कोयले की तहें सीधी और अकसर एक सी होती हैं। इससे उसको घान आसानी से जाना जा सकता है। सेने की जान का काम करना एक प्रकार का जुआ है। पर आयले की बात ऐसी नहीं हैं। नई कम्पनियों के एजंटों की बादरचाह बात और मन लुभाने वालों भोपा में लिखे गये रंग विगै विज्ञापनों से लोगों को सदैछ राशियार रहना चाहिए । उनके फंदे में पड़ कर घाखा खा जाने का बख़ा डर रहती है। लेकिन कम्पनियां खड़ी करने वाले भी भलै बुरे सब तरह के होते हैं। इस लिए रुपयों लगाने वालों को उन्हें अच्छी तरह जाँच लेना चाहिए । रुपया