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सम्पत्ति-शास्त्र।

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देने के पहले यह अच्छी तरह जान लेना चाहिए कि जिस कम्पनी की बात Bा रही है वह दर असल में कहाँ है भी या नहीं। और, उसके अधिष्ठाता और प्रबन्ध-कर्ता विश्वसनीय और प्रतिष्ठापाघ्र हैं या नहीं। सब से बड़ी वात यह है कि अादमी के अपना मम खूब भर लेना चाहिए कि यह कम्पनी चलेगी या नहीं। जब सब तरह दिलजमई है। जाय तब रुपया देना चाहिए । किन कारणों से कोच और दियासलाई आदि के छोटे छोटे कार खानै न चल सके उन पर खूब अच्छी तरह विचार करके काम शुरू करना चाहिए । इनके न चलने का मुख्य कारण यह है कि वहुधा ये काम बिना पूरी योग्यता के विना तत्सम्बन्धी शिल्प कला-कौशल के, और बिना काफ़ी पूँजी के शुरू कर दिये जाते हैं। जिस कम्पनी के पास इतना भी धन न है कि फाम चल निकलने तक वह अपना खर्च सँभाल सके उसे भला कैसे कामयाबी हो सकती है। जिस कारखाने का दफ्तर एक अँधेरे झोपड़े में है, जिसके मैनेजर या कारकुन ,एक घुनी हुई मेज़ के सामने किसी टूटी फुर्सी पर तशरीफ़ रखते हों, और तीन चार मरियल कुली इधर उधर फिर रहे हों उसकी ज़िन्दगी चन्द्ररोज़ा ही समझिए । यद्यपि आलीशान आफ़िस और भाप से चलने वाली फलों से ही सफलता नहीं प्राप्त होती, तथापि कारखाने की इमारत और सामान पैसा है ज़रूर ही हो जो दर्शक के चित्त के आकर्षित करके उस पर अपने गौरव की धाक जमादे ।।

चौथी बात जो इस मामले में विघ्न डालती है वह हम लोगों को एक दुसरे पर अविश्वास है । वड़े अप्रसेास की बात है कि हम लोग अपनों हाँ पर विश्वास नहीं करते । विश्वास न करने की इमें आदत सी हो गई है। लोग इस बात पर कभी विचार भी नहीं करते। यहां तक कि सीधे सादे आदमी की चहुधा लोग घेवकूफ बना कर मज़ाक़ उड़ाते हैं। वह नौकर उल्लू समझा जाता है जो अपने मालिक का बैच कूफ़ बनाकर उससे अपनी तनाए के सिवा चालाकी से कुछ अधिक नहीं ऐंठ लेता। आज कल यह चाल सी है। गई है कि जब लीग किसी से उसकी तनल्लाह पूछते हैं तब साथ ही ऊपरी ग्रामदनी भी पूछते हैं। लोगों की एक अन्धविश्वास है। गया है कि प्रत्येक आदमी अपने व्यवसाय में कुछ न कुछ चालाकी ज़रूर करता है। इसी बुनियाद पर लाग कह देते हैं कि कम्पनियों के मैनेजर जरूर ही चतुर स्मादमी रखे जाते होंगे । अतएव चे घालाकी ,