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व्यवसायी कम्पनियां अथवा सम्भूय-समुत्थान।

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करने से क्यों चूकतें होंगे ? इसकी मिसाल मन्दिरों के महन्तों और प्रबन्धकर्ताओं से दी जाती है जो इस तरह की चालाकी के लिए बदनाम है। लेाग कहते हैं कि जव पेसों का यह हाल है तब साझे को कम्पनियों के मैनेजर भला क्यों न चालाकी करते होंगे । इसी से लोग एक दूसरे का एतबार नहीं करते । यह वात व्यापारिक उन्नति में बड़ी बाधा डाल रही हैं। रुपया लगने वालों के सावधान जरूर एहना चाहिए; परन्तु अपने साधियों का कुछ विश्वास भी करना चाहिए । उनको समझना चाहिए कि एक सुसंगठित कम्पनी में गोल भाल करना बहुत मुश्किल है, क्योंकि ऐसी कम्पनियों के प्रबन्धक मन्दिरों के महन्तों की तरह नहीं होते । यहां सारा हिसाब-किताब यानियम रखा जाता है। मैनेजर के ऊपर कितने हाँ तजरिबकार और इज़्ज़तदार डाइरेकृर्स (Directors) होते हैं । छाटे छोटे पार्च भी कई जगह लिखे जाते हैं। इसके सिर र साझीदार के पास हुर साल जमा-खर्च का ध्योरेवार चिट्ठा भेजा जाता है। वह खुद भी वार्षिक या छमाही मीटिंग में डाइरेकृरों से जे चाहे पूछ सकता है और जब चाहे हिसाव की जांच कर सकता हैं। | इस अचिश्वास की जड़ हमारे यहाँ सौदा लेने में मौल तोल करने की कुरीति है। बाज़ार में जिस चीज़ का मोल पहले २० रुपये कहा जाता है। वह १० या १५ ही में देदी जाती है। क्या इससे यह नहीं सिद्ध होता कि बेचने वाला उसके उचित मोल से अधिक लेना चाहता हैं ? इसी से अविश्वास इतना बढ़ गया है। ऐसी धोखेबाज़ी साधारणतः छोटे से लेकर बड़े दुकानदारों और सौदागरों तक में देखी जाती है । इसी लिए आज कल बाज़ारों में खरीदार दुकानदार की और दुकानदार खरीदार को अपनी अपनी चालाकी से बेबकूफ़ बनाने का यत्न करता हैं । यह बड़ी ही दुरी चाल है । ज़रा सी बात के लिए लैकितना झूठ बोलते हैं। किसी को कुछ लेना है।ता है तो वह और और चौज़ों की क़ीमत पूछने के बाद उस चीज़ पर हाथ लगाता हैं । यह इस लिए किया जाता है जिसमें दुकानदार को यह न मालूम हो कि प्राहक को उस चीज़ की जरूरत है। यह मालूम है। जाने से दुकानदार उसकी कीमत और भी बढ़ा कर बतलाता है।

जैसे किसी के एक छाता लेना है । वह दुकान पर जायगा । दुकान पर छातों के सिवा और भी बहुत सी चीजें हैं । ग्राहक महाशय पहले एक