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सम्पति-शास्त्र !

और ही चीज़ उठा कर उसके दाम पूछगै । ( यह झूठ नम्बर १ हुअा ) । फिर आप कहेंगे कि यह वैसी नहीं है जैसी आप चाहते हैं । ( झूठ नम्बर २}। इसी तरह करते करते अचानक छाते की तरफ देख कर आप कहेंगे कि थोड़े दिनों में तो छाता लेना ही पड़ेगा, लाच इन्हीं की दुकान से लैले । तब अप छाते के दाम पुगे । ( झूठ नम्बर ३}। दुकानदार कहे–“तीन रुपयै” । ग्राहक महाशय हँस कर चल देंगे और थोड़ी दूर जाकर कहेगे- १) रुपया लागे” १ (झूठ नम्बर ४)। दुकानदार आवाज़ वेगा—“उहरिए तो अनाव, तारीफ़ लाइए । सौदा कहीं भागने से थोड़ेही है होता है । अच्छ। पौने तीन रुपये दे जाइए" । ग्राहक–पौने दो में देना छो देदो; अधिक बाते बनाना हमें नहीं आता। (झूठ भयर ५) । दुकानदार-"अच्छा साहुच, आप l) रुपयै हौ देजाइए; लीजिप” । ग्राहक साहब दो रुपये कहकर झपट कर चल देगे । (झुछ नस्वर ६}। थोड़ी दूर जाने पर आप सोचेंगे कि शायद दुकानदार न बुलाचे । इधर दुकानदार सोचता है कि शिकार हाथ से निकला जा रहा है। इससे यौहाँ ग्राहक महाशय मोड़ पर से झुकते हैं कि वह चिल्लाता है आइए साहव आइए ले जाइए' । चस सौदा तै हो जाता है । ग्राहक महाशय समझते हैं कि सत्ता लाये । दुकान दार कहता है-*वचा, फहाँ तक होशियारी करोगे, मैंने चार आने पिछले ग्राहक की अपेक्षा तुमसे अधिकहीं लिये हैं" । अव देग्मिए, एक अदना सौ चीज़ छाता खरीदने में आइक ने ६ दफे झुट घोला ? दुकानदार ने कितनी दफ़े झुठ बोला, उसका हमने हिसाव ही नहीं लगाया ! झिाव ! शिव ! झूठ ••बोलना कितना घोर पाप है। अच कल्पना कीजिए कि एक ऐसी दुकान है जहां एकहीं बात कही जातो है । ग्राहक जाता है। चीज़ पसन्द करता है । दाम पूछता है । जी में आता है है लेता है, नहीं तो भम्रतापूर्वक चीज़ वापस करके बल देता है । यह कितनी सीधी सादी रीति है। दुकानदार और ख़रीदार दोनों मिथ्या भाप के पाप से बचते हैं, और एक दूसरे पर विश्वास भी करते हैं । इससे ज़ाहिर है कि जब तक यहाँ यह मोल तोल की निन्दुित कुरीति प्रचलित रहेगी तब तक लोग एक दूसरे पर कभी विश्वास न करेंगे । अतएवं जहां तक हो सके इस कुरीति के बहुत शीघ्र छोड़ देना चाहिए ।