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हड़ताल और द्वारावरोध ।

अन्न काम कम रहता है और मज़दूर अधिक होते हैं तच मज़दूरी का निर्ष घट जाता है और कारब्राने वालों की वहुत मुनाफ़ा होता है। ऐसी अवस्था में दिन भर मेहनत करने पर भी मज़दूरों को पेट भर खाने की नहीं मिलता । इसीसे वे हड़ताल कर बैठते हैं। प्राचीन समय में इस देश की समाज- रचना भिन्न तत्वों पर की गई थी। उस समय यह माना गया था, और अब भी माना जाता है, कि मनुष्य जन्मही से अमुक व या प्रमुफ जाति का पैदा हुआ है । प्रायः सबै व्यवसायियों की भिन्न भिन्न जातियां थींजैसे कुम्हार, सुनार लोहार, बढ़ई आदि । चाहे किसी एक जाति के लोगों में स्पर्धा होती रही हैपरन्तु एक जाति के लोगों के व्यवसाय में अन्य जाप्ति के लोग स्वतन्त्रता पूर्वक घुसकर उनसे स्पर्धा नहीं कर सकते थे। जब कभी एक जाति का व्यवसायी दूसरी जाति का व्यवसाय करने लगता था, तब लोग उसका हुक्का-पानी बन्द करके उसे जाति से बहिष्कृत कर दिया करते थे। फल यह होता था कि प्रत्येक जाति के व्यवसायियों के हक़ की पूरी पूरी रक्षा होती थी । जातिभेद या वर्णभेद इस समय किसी कारण से चाहे बुरा माना जाय, तथापि औद्योगिक अथवा आर्थिक दृष्टि से झुरा नहीं कहा जा सकती । जाति और व्यवसाय का सम्बन्ध, आज कल, अँगरेज़ी राज्य में, शिथिल हो रहा है। अब लोग यह समझने लगे है कि हर तरह के ज्यघसाय करने के लिए हम स्वतन्त्र हैं। अर्थात् जिस तरच पर पश्चिमी देशों के समाज की रचना की गई है उसी तव का अवलम्ब इस देश के लोग भी धीरे धीरे कर रहे हैं। यह बात अच्छी है या बुरी, इस पर हम अपनी राय नहीं देना चाते । परन्तु हम यह अवश्य कहेंगे कि समाज की परिवर्तित स्थिति के अनुसार इस देश के भिन्न भिन्न व्यवसायियों और मजदूरों का स्पर्धा और हड़ताल करने की आवश्यकता प्रतीत होने लगी है। मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अपने मुनाफ़े का हिस्सा किसी दूसरे को नहीं देना चाहता । जो पूँजीवाले अपनी पूंजी लगा कर बड़े बड़े व्यवसाय करते हैं । यही चाहते हैं कि सब मुनाफा हुम के मिले, जिन मज़दूरों की मेहनत से उनका व्यवसाय चलता है उन्हें उस मुनाफे में से कुछ भी न देना पड़े। इसीकेा अर्थशास्त्र में पूँजी र श्रम का हित-विरोघ कहते हैं । अकसर देखा गया है कि जो लोग हड़ताल करते हैं वे हड़ताल करके ही चुप नहीं रहते, किन्तु अपनी जगह पर औरों के काम करने से भी रोकते