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सम्पत्ति-शास्त्र !


ने इस न्यूनता को भी दूर करने का एक उपाय निकाला है। उसे साझा या शराफत कहते हैं। साझा। किसी किसी कारखाने या कारोबार के मालिक अपने मजदूरों से भी थोड़ी थोड़ी पूंजी लेकर अपने व्यवसाय में लगाते हैं। अर्थात् उन्हें अपना साझी कर लेते हैं। ऐसा करने से मालिक और मज़दूर दोनों को बराबर हानि-लाभ उठाना पड़ता है। दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध खूब हद हो जाता है । मजदूरों को विश्वास हो जाता है कि यदि ये जी लगाकर ईमान- दारी से काम करेंगे तो उन्हें भी लाम होगा। और यदि न करेंगे तो जो हानि होगी उसे उनको भी भुगतना पड़ेगा। विलायत में एक जगह हालिफैक्स है। वहाँ क्रासले नाम की एक कम्पनी है । उसने दरियाँ चुनने का एक कारखाना खोल रक्खा है। उसमें इसी साझेदारी के तत्वों के अनुसार काम होता है। अर्थात् उस कारखाने में मजदूरों की भी पूँजी लगी हुई है। इस कम्पनी का काम-काज खूब अच्छी तरह चल रहा है। न कोई झगड़ा होता है, न फ़िसाद । न कभी हड़ताल की नौबत आती है. न द्वाराबरोध की। मजदूर खूब जी लगा कर काम करते हैं और मनमाना फायदा उठाते हैं। एक और उदाहरण लीजिए । इंगलैंड में ब्रिग्ज़ नाम की एक कम्पनी कोयले की खानों का काम करती है। मजदूरो के सम्बन्ध में इस कम्पनी के मालिकों और मजदूरों में बहुत दिन तक झगड़े होते रहे । मजदूर वार बार हड़ताल करके कम्पनी को हानि पहुँचाया करते थे। इस से कब कर कम्पनी ने अपना कारोबार बन्द कर देने का इरादा किया। परन्तु मालिकों ने फिर सोचा कि क्या कोई पेसा उपाय नहीं जिस से हमारा और मजदूरों का हित-चिरोध दूर हो जाय । इस पर साझे की बात उनके ध्यान में आई। उन्होंने खान में काम करनेवाले मजदूरों से भी थोड़ी थोड़ी पूँजी लेफर उस संयुक्त मुल धन से एक बाकायदा कम्पनी खड़ी की। कम्पनी की पूँजी ९००० हिस्सों में बांटी गई । उनमें से ३००० हिस्से मजदूरों ने लिए । इससे श्रम और पूंजी की एकता हो गई । पूँजी पर फ्री सैकड़े १० मुनाफा काट कर जो रकम बचती उसका नाधा मजदूरों को, इनाम के तौर पर,