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व्यवसायियों और श्रमजीदियों के हितविरोध-नाशक उपाय ।


पाँर दिया जाने लगा। इस से इस कम्पनी का कारोबार खूब चमक उठा । सब झगड़े मेढ़े दुर हो गये। परन्तु कुछ दिन बाद, जब कम्पनी को बहुत फायदा होने लगा तब लालच में आकर मालिकों ने एक विवाद खड़ा कर दिया । वे इस बात का विचार करने लगे कि कम्पनी में मजदूरों के कितने हिन्ले होने चाहिए: पूँजी पर फ्री सेकड़ा कितना मुनाफ़ा लेना चाहिए: पार मजदूरों को कितना इनाम देना चाहिए, इत्यादि । इस विचार में मालिकों ने मजदूरों के लाभ की तरफ़ कम ध्यान दिया, अपने लाभ की तरफ अधिक । इस से मज़दूर असन्तुष्ट हो गये और कारोबार में फिर घाटा होने लगा। इन उदाहरणां से सिद्ध है कि जब तक पूँजी वालों और मज़दूरों के पारस्परिक हित-चिरोध का नाश न हो जायगा तब तक झगड़े फ़िसाद हुआ ही करेंगे। उन्हें दूर करने के लिए एकता का होना बहुत जरूरी है। नभी दूर होंगे जब मजदूरों को भी मुनाफ़े का काफी अंश मिलेगा। यदि कहाँ मज़दूर ही जीवाले भी हो जायें ना इस झगड़े पार इस हित-विरोध का समूल ही नाश हो जाय । यह संभव है। संभव ही क्यों, कहाँ कहीं इस तत्त्व पर बड़े बड़े व्यापार-व्यवसाय हो भी रहे हैं। सहोद्योग। अब किसी व्यवसाय में लगी हुई सब पूँजी उस व्यवसाय में श्रम करने वाले मजदूरों या अन्य लोगों ही की होती है तब उसे सहोद्योग कहते है। इस रीति से व्यापार-व्यवसाय करने में किसी तरह का हित-विरोध नहीं होता । इस से सम्पत्ति को उत्पत्ति र टसके विभाग में बहुत लाभ होता है। अर्थ-विभाग में तो लोगों ने इस रीति का बहुत अधिक उपयोग किया है। यारप बार अमेरिका में कितने ही बड़े बड़े व्यापार-व्यवसाय इसी- रीति के अनुसार होते हैं। परन्तु अर्थोत्पादन, अर्थात् सम्पत्ति की उत्पत्ति, के सम्बन्धम इस रीति का उतना उपयोग नहीं किया गया। आशा है कि मनुष्य- समाज जैस जैसे सुशिक्षित और सभ्य होता जायगा वैसे ही वैसे इस तत्त्व का महत्त्व अधिकाधिक लोगों के ध्यान में आता जायगा । ग्वती के व्यवसाय में सहोद्योग के नियमों के अनुसार काम करने से बटुत लाभ हो सकता है । क्योंकि जितने किसान होते हैं प्रायः अपढ़ और