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सम्पत्ति-शास्त्र ।


अल्पज्ञ होते हैं। यदि उन लोगों में शिक्षा का प्रचार हो जाय और सहोद्योग के लाभ उनके ध्यान में आ जाएँ तो इस रीति से वे ज़रूर लाभ उठावें। . विलायत में एक जगह राफडेल है । यहाँ सूती कपड़े की एक "मिल" है । वह सहोद्योग के नियमानुसार चलाई जाती है। उसमें लगी हुई सारी पूँजी मजदूरों ही की है। पूँजी पर ती सदी ५ सूद काट कर जो रकम बचती है उसके दो हिस्से किये जाते हैं। एक हिस्सा पूँजो के हिस्सेदारों को बतौर मुनाफे के बाँट दिया जाता है और दूसरा हिस्सा मजदूरों को मिलता है। उसे वे लोग बाँट लेते हैं । इंगलैंड की अपेक्षा फ्रांस में सहायोग ' की रीति से व्यापार व्यवसाय करने की चाल अधिक है। वहाँ कपड़ा सीने, ऐनक बनाने, धड़ी बनाने प्रादि के काम के सिवा लाहार, बढ़ई, “मेसन" मादि के काम भी इसी रीति के अनुसार होते हैं । इस रीति में एक दोष भी है । वह यह कि इसमें मनसूबाजी से कभी कभी हानि हो जाती है। अतपय जिस व्यवसाय में मनसूबेबाज़ी अधिक करनी पड़ती हो उसमें इस रीति का अनुसरण बड़ी सावधानता से करना चाहिए। अर्थोत्पादन के व्यवसायों की अपेक्षा अर्थ-विभाग के व्यवसायों में इस रीति के अवलम्बन से अधिक लाभ होता है। थोरप के व्यवसायियों ने. अर्थ-विभाग के कामों में सहोद्योग के तत्त्व का अनेक तरह से उपयोग किया है। कहीं कहीं तो शुद्ध सहोद्योग के तत्त्व का अवलम्बन किया गया है, कहीं कहीं नहीं । उदाहरण के लिए, कुछ आदमी मिल कर दूकान करना विशुद्ध सहोद्योग नहीं है। इसे सहोद्योग-झात्त दुकानदारी कहना चाहिए । . इसमें पूँजीवालों और मेहनती मजदूरों की एकता के बदले दुकान के मालिक "और ग्राहकों में धन-सम्बन्धी एकता होती है। इस तरह की दुकानों की पूँजी किसी एक आदमी की नहीं होती। पूँजी के हिस्से कर दिये जाते हैं। जो लोग उन हिस्सों को लेते हैं वही हिस्सेदार उनके मालिक होते हैं। उन सब की तरफ़ से कुल हिस्सेदार या मार लोग भी, जिनका ऐसी दुकानों से कोई सरोकार नहीं होता, उनके व्यवस्थापक पौरः कार्यकर्ता होते हैं। पेली दुकानों में बेचने के लिए जो माल रक्या जाता है वह किसी बड़े कारखाने से थोक भाव पर ले लिया जाता है और फुटकर भाव से नकद दाम लेकर बेचा जाता है । उधार का व्यवहार रहाँ बिलकुल नहीं होता । इस से चक्षुत लाभ होता है । एक निश्चित समय पर मुनाफ़े का