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सम्पत्ति-शास्त्र।

कारण सान का व्यवहार जितना पहले बढ़ता है उतना ही पीछे कम भी होजाता है। साख के बल पर व्यापार-व्यवसाय करने से क्रय-विक्रय करने वालों ही को नहीं, किन्तु सारे समाज को लाभ पहुँचता है । पर हाँ समझ बूझ कर सान का व्यवहार करना चाहिए- क्रय-विक्रय बढ़ने से रुपये की ज़रूरत बढ़ती है। ऐसी अवस्था में यदि रुपया या उसके बदले और कोई चीज़ न मिले तो खरीद-फरोख्त का काम जरूर कम होजाय और कम होने से वेची जानेवाली चीज़ों का बाजार मा भन्दा पड़जाय । जितना ही क्रय-विक्रय बढ़ता है उतनी हो अधिक इंडियां लिखनी पड़ती है। यदि किसी का फय विकय दूना बढ़ जायगातो उसे पहिले से बहुत अधिक हुंडियां लिखना और उनका भुगतान करना पड़ेगा। व्यापार-व्यवसाय बढ़ने से साख का व्यवहार आपही आप बढ़ जाता है और उसके कम होने से साख का व्यवहार भी फम होजाता है। व्यापार-व्यवसाय बढ़ने पर भी यदि साख का उपयोग न किया गया तो चीज़ों की कीमतें कम होने लगती है और व्यापार- व्यवसाय मन्दा होने पर चढ़ने लगती है । मतलब यह कि व्यापार व्यवसाय के अनुसार साख का व्यवहार घटता बढ़ता है । साख का उपयोग होने से साधारण रीति से चीज़ों की कीमत बहुत करके घे-हिसाब नहीं बढ़ाती उतरती। इस कारण सर्वसाधारण को प्रायः हमेशाही इस से लाभ होता है। सान के प्रभाव से सोने चांदी के सिक्कों की कम ज़रूरत रह जाती है। यदि दुडियां और नोट वगैरह का चलन बन्द होजाय तो सोने चांदी के बिना काम न चले । साप ऐसी चीज़ है कि उसकी बदौलत कौड़ियों का फागज हज़ार रुपये का काम कर जाता है। इसे क्या थोड़ा फायदा समभाना चाहिए? सम्भूय-समुत्थान के नियमों के अनुसार व्यापार-व्यवसाय करनेवाली कम्पनियाँ साखही की बदौलत चलती हैं। यदि उनके कार्यकर्ता विश्वास- पात्र न हो-यदि उनकी सास न हो-तो क्यों लोग हजारों रुपये देकर उनके हिस्से खरीद करें। सान न होने के कारण जहां इस तरह की कम्पनियां नहीं है, अथवा है भी तो बहुत कम, यहां लोगों का बहुत सा धन व्यर्थ उनके पास पड़ा रहता है। उसका उपयोग नई सम्पत्ति उत्पन्न करने में नहीं