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सम्पत्ति-शास्त्र


उसके सिद्धान्तों में अनम्भिरता भी है और कहीं कहीं विरोध भी है। एक देश विदेशी माल पर कड़ा कर लगाकर उसकी आमदनी कम कर देता है, अथवा बिलकुलही बन्द कर देता है, और समझता है कि इससे उसकी सम्पत्ति की रक्षा या वृद्धि होगी। दूसरा देश ठीक इसका उलटा व्यवहार करता है। अतरच जिस विषय की यह दशा है उसे शास्त्रत्व पद नहीं प्राप्त हो सकता।

दुसरं पक्षवाले ऐसो दलीलों को नहीं मानने है । वे कहते हैं कि जब किसी नये शास्त्र की उद्भावना होती है तब उसकी उम्पत्ति के साथ ही उसके सिद्धान अचल नहीं हो जाने । बोज, बिचार, अध्ययन पार परिशीलन दान होने पहले निश्चय किये गये सिद्धान्नी को अनन्थिरता और भ्रान्ति जग जमे मालम दानी जाती है, वैसे वैसे उनका संशाधन होता जाता है। इग्मी तरह कुछ समय बाद सिद्धान्तगत सारे दोष दूर हो जाते हैं । क्या भार शास्त्रों के सिद्धान्त शुरू ही में पके हो गये थे? नहाँ, कम कम मे उनके दाप दूर हुए हैं, लकड़ी, हजारों, वर्ष बाद उन्हें वह रूप मिला है जिसमें हम आज कल उन्हें देखने हैं। अनपच यदि इस शास्त्र की चर्चा बनी रही, और विद्वान इसके सिद्धान्तों का विचार मनानिवेशपूर्वक करने गये, तो कोई समय आबगा जब सम्पत्ति का विषय शास्त्र ही नहीं, किन्तु बहुत बड़े महत्त्व का शान समझा जायगा। यह वह शाख है जिसमें मनुष्य-समाज या मनुष्य जीवन से सम्बन्ध रखने वाले कुछ व्यापक व्यवहारों को आधार मान कर उनका शाखोय विचार किया जाता है। इस तरह इस शास्त्र के प्राथमिक सिद्धान्त स्थिर करके. फिर इस बात का विचार किया जाना है कि इस समय मनुष्य की जैसी स्थिति है उसके बयाल से ये सिद्धान्त कहां तक सही है। उदाहरणा के लिए सम्पत्ति-शास्त्र के मोटे मोटे दो सिद्धान्त लोजिए:-

(१) मनुष्यमात्र थोड़ी बहुत सम्पत्ति की इच्छा रखते हैं।

(२) जिनके पास पूंजी है वे उसे किसी लाभदायक रोजगार में लगा कर उससे मुनाफ़ा उठाने का यत्न करते हैं।

यधपि ये सिद्धान्त सही है, तथापि जिस देश में गदर हो रहा है। जहाँ मार काट जारी है, जहां दिन दोपहर आदमियों को चार बार डाकू लूट. रहे हैं, जहां माल असबाब की तो बात ही दूर है, जान बचाना भी कठिन