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सम्पत्ति-शास्त्र।


से काम करना पड़ता है। क्योंकि यदि रुपया अन्दाज़ से अधिक फैल जाय और अमानत रखने वाले उसी समय अपना रुपया माँगने लगें तो बैंक को घड़ी भारी विपत्ति का सामना करना पड़े । संभव है, ऐसे मौके पर बैंक का दिघाला हो जाय । इस से बैंक वाले बहुत समझ बूझ कर रुपया फैलाते हैं। वे रोज़ देखते रहते हैं कि उनके पास कितना रुपया जमा है, कितना बाहर है । और कितना पास है। और आवश्यकतानुसार, सब बातों को ध्यान में रख कर, उचित फेर फार किया करते हैं! जब कोई आदमी बैंक में रुपया जमा करता है तब बैंक को इस बात फा हा प्राप्त हो जाता है कि उस रुपये को वह जिस तरच चाहे खर्च करे। जमा करने वाला न उस से अपने रुपये का हिसाव ही मौग सकता है पार न यही कह सकता है कि आप हमारे रुपये का इस तरह वर्च कीजिए | रुपया जमा करनेघाले का बैंक सिर्फ देनदार रहता है । अथवा यो कहिए कि जमा करने वाले के रुपये के बदले वह उसे रुपया वापस पाने का अधिकार या हम वेध देता है। बैंक रुपया ले लेता है और हक दे देता है। माना यह भी एक तरह का सौदा हुमा-क्रय-विक्रय हुआ। व्यापार- व्यवसाय के देने पाचने के सूचक हुंडी इत्यादि काग़ज़ पत्र भी बैंक इसी तरह खरीद करता है। बटुधा हुँदी पुरजे के लेन देन में बैंक को माद रूपये का बहुत कम काम पड़ता हैं । यथासमय हुंडी का रुपया वसूल कर लेने की ज़िम्मेदारी खरीद करके यद्यपि बैंक बहुत सा फर्ज अपने सिर लाद लेता है तथापि बहुत कम लोगों को उसे नकद रुपया देना पड़ता है। क्योंकि जहाँ वाणिज्य-व्यवसाय बद्धत होता है यहाँ एक के लहने से दूसरे के पावने की भरपाई हो जाती है। रुपये का काम ही नहीं पड़ता। हक, स्वरच, या लहन-पावने के क्रय-विक्रय अथवा हेर-फेर से बिना रुपये ही के काम चल जाता है। बैंक का काम करनेवालों और दूसरे ध्यवसायियों में कोई विशेष भेद नहीं। दूसरे व्यवसायी अनेक प्रकार का माल असाच बेच कर उसके बदले रुपया संग्रह करते हैं । बैंकर लोग भविष्यत् में बैंक से रुपया वसूल कर लेने का हक़ लोगों को बेच कर उनसे धन संग्रह करते हैं। जैसा ऊपर एक जगह लिखा जा चुका है, महाजनों का मुख्य काम कर्ज देना है, बैंकरों का मुख्य काम लार्ज लेकर कर्ज देना है।