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सम्पत्ति-शास्त्र।


रुपया, बिना उन ९डियों को बेचे, देने में बैंकरों को कठिनता का सामना करना पड़े। इसी से बैंकर बहुधा थोड़ी मुहत की ही टुंडियाँ अधिक खरीद फरते हैं। बैंकरों के खाते में व्यवसायी प्रादमियों के नाम लाखों रुपये की रफाँ का जमा स्वर्च देख कर किसी को यह न समझना चाहिए कि बैंकर इतने नकद रुपये का व्यवहार कर रहे हैं। यदि कोई ऐसा समझे तो उसका भ्रम है । टुडियों के व्यवहार के कारण व्यवसायियों के रुपये का अधिकांश सिर्फ कागज पर लिखा भर रहता है। यह देखने को नहीं मिलता। उसे सिर्फ कागजी जमा-खर्च समझना चाहिए । बैंक कई तरह के प्रादमियों कोरुपयाज देता है। उनमें से तीन मुख्य हैं:- (१) साधारण मादमी जो कोई व्यापार-व्यवसाय नहीं करते । (२) व्यापार-व्यवसाय करने वाले काम-काजी आदमी। (३) कानून के अनुसार रजिस्ट्री की मुई कम्पनियाँ । पहले प्रकार के लोगों से बैंक को हुँडियों नहीं मिलती; क्योंकि जो लोग किसी तरह का कारोबार करते हैं यही बहुत करके डंडियों लिखते और बेचते हैं। और लोग नहीं। ऐसे आदमियों को बैंक बहुत समझ बूझ कर कर्ण देता है। क्योंकि उनकी निज की कोई सम्पत्ति न होने से उनके मरने पर बैंक को अपना रुपया वसूल करने में बड़ी मुश्किल पड़ती है। दूसरे प्रकार के लोगों को क़र्ज़ देने में भी बैंक को आगा पोछा देख लेना पलसा है। उन की बाज़ार साल और उनके देने पावने की खूब जाँच पड़ताल करके एक कर्ज़ देता है। कभी कभी व्यवसायी आदमी अपने बहीखाते में कुछ का कुछ "लिख रखते हैं, और जो १०० रुपये पावना होता है तो उसे बढ़ा कर १००० कर देते हैं। ऐसे कागज-पन्न देख कर यदि बैंक बहुत सा रुपया उधार देता है तो पीछे से उसे हानि उठानी पड़ती है। तीसरे प्रकार के लोगों को कर्ज देते समय भी बैंक को दो चार बातों का विचार करना पड़ता है। बहुत सी कम्पनियां ऐसी होती है जिन्हें कर्ज लेने का अधिकारही नहीं होता, पौर यदि होता भी है तो बहुत कम फर्ज लेने का। ये सब बातें आनने के लिए बैंक को कम्पनी के व्यवस्थापत्र आदि देखने पड़ते हैं। नई कम्पनियों कर बैंक तब तक रुपया कर्ज नहीं वेता जब तक उनकी वा कायदा रजिस्ट्री नही हो जाती और अपना काम नहीं करने लगती । . . . . . .. .