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शास्त्रत्व-विचार।


है, वहां क्यों कोई सम्पत्ति प्राप्त करने की इच्छा करेगा और क्यों काई रोज़गार में रुपया लगा कर मुनाफा उठाने की आशा रक्खेगा? चोरों के लिए कोई सम्पत्ति नहीं प्राप्त करता और न मुनाफ़े के लालच से जान बूझ कर घर की पूंजी ही कोई खोता है। परन्तु यह एक मुस्तसता बात हुई इसे अपवाद समझना चाहिए। इससे सम्पत्तिशास्त्र के प्राथमिक सिद्धान्तों को धक्का नहीं लग सकता। इस शास्त्र का सम्बन्ध मनुष्य की व्यावहारिक बातों से है। यदि किसी देश के निवासियों के व्यवहार में कोई विशेषता आ जाय तो उस विशेषता को ध्यान में रख कर सम्पत्ति-विषयक सिद्धान्त निश्चित करने पड़ेंगे। दुनिया में न सब आदमियों के व्यवहार ही एक से हैं, न राज्य-प्रबन्ध ही एक सा है, और न समाज की व्यवस्था ही एक सी है। ये बातें सब कहीं अपनी अपनी स्थिति के अनुकूल हैं। फ्रांसवालों के व्यवहार और राज्यप्रबन्ध की तुलना इँगलैंडवालों से नहीं हो सकती, और इंगलैंडवालों के व्यवहार और राज्यव्यवस्था की तुलना अमेरिकावालों से नहीं हो सकती। यही बात हिन्दुस्तान की भी है। यहां की व्यावहारिक और राजकीय व्यवस्था और देशों की व्यवस्था से नहीं मिलती। यही कारण है कि यद्यपि सम्पत्ति शास्त्र के बहुत से प्राथमिक सिद्धान्त प्रायः निर्भ्रान्त और निश्चित है, तथापि, प्रत्येक देश की व्यावहारिक स्थिति में कुछ न कुछ भेद होने के कारण, उनमें अन्तर आ जाता है। यदि ऐसा न होता तो इंगलैंड जिस अप्रतिबद्ध व्यापार के इस समय इतना अनुकूल है, अमेरिका और फ़्रांस उसी के प्रतिकूल न होते। हां, यदि, दुनिया भर की ध्यावहारिक और राजकीय व्यवस्था एक सी होती तो सम्पत्तिशास्त्र के सिद्धान्त भी सबके एक ही से होते। परन्तु यह बात नहीं है, इससे जो सिद्धान्त एक के लिए लाभदायक है वही दूसरे के लिए कभी कभी हानिकारक है। यहाँ तक कि एक देश के सिद्धान्त भी हमेशा एक से नहीं रहते, समय पाकर उन में भी अन्तर हो जाता है। मतलब यह कि सम्पतिशास्त्र सम्पत्ति से सम्बन्ध रखने वाली व्यावहारिक बातों के सिद्धान्त निश्चित करता है। अतएव व्यवहारों ही के अनुसार उसके सिद्धान्तों को, प्रत्येक देश की व्यवस्था के ख़याल से, कुछ न कुछ भिन्न रूप धारण करना पड़ता है। अथवा यही बात यदि दूसरी तरह से कही जाय तो इस तरह कही जा सकती है कि प्रत्येक देश का सम्पत्तिशास्त्र जुदा जुदा होता है।