पृष्ठ:सम्पत्ति-शास्त्र.pdf/२७८

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तीसरा भाग । व्यापार । पहला परिच्छेद । व्यापार से लाभ | 'कृत में एक शब्द धगिफू” है। उसका अर्थ है क्रय विक्रय, अर्थात् नारीद-फरोख्त, फरने पाला । चणिवृत्ति हो ३ का नाम वाणिज्य है। अर्थात् बनिये का व्यवसाय या 2 05 काम चाणिज्य कहलाता है। क्रय-विक्रय करने वालों का यथार्थ नाम वणिक् होना ही चाहिए, परन्तु हिन्दी में "व्यापारी शब्द का ही अधिक प्रयोग होता है और व्यापारियों की वृत्ति, अर्थात् रोज़गार यो धन्या, व्यापार कहलाता है। इससे हमने इस भाग का नाम "बाणिज्य” न रखकर व्यापार क्खा है। मनुष्य के न मालूम कितनी चोरों दरकार होती हैं । पर वह उन सब के खुद ही नहीं बना सकती। जितनी व्यावहारिक चीजें हैं उनमें से सैकड़े पेस हैं जिन्हें उपार्जन करने के लिए उसे औरों को मुँह देखना पड़ता है-- औरों का प्राश्रय लेना पड़ता हैं। किसी किसान के पास जाकर आप पूछिए कि तुम अपने पहनने के कपड़े, या सोने की चारपाई, या जीतने का हुल अप ही क्यों नहीं बना लेने ? यदि वह समझदार है तेर रन जवान देगा कि मुझे इन चीज़ों के बनाने का अभ्यास नहीं। यदि मैं व्यवहार की सारी चीजें बनाने की अभ्यास करू तो बहुत समय लगे और, फिर भी शायद में सब चीजें अच्छी ने बना सकू' । यदि कपड़े लत्ते घनाने ही में मेरा बहुत सा समय चला जायगा है। मैं अपना किसानों का काम न कर सकू'गा। फिर इल, फल, चारपाई और कपड़े बनाने के लिए कितने ही औज़ार दरकार होते हैं । उनकै' मैक लेने के लिए बहुतसा रुपया चाहिए ! वह कच्चां से आवेगा । एक इल, एक चारपाई या पक जैड़ा 'धात बनाने के लिए जितने औज़ार और जितने चोज़ दरकार होती हैं उतनी हीं से सैकडे