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सम्पत्ति-शास्त्र


अधिक होने से, मेहनत मजदूरी करके पेट पालनेवाले लोगों की मजदूरी के निर्य पर भी कुछ न कुछ असर पड़ता है। यही नहीं, किन्तु जीविका-उपा- जैन करने के जितने सर्व-साधारण माग हैं, अथवा यां कहिए कि जितने सर्व-साधारण रोज़गार या उद्योग-धन्ध हैं, सब में श्रेोड़ा बहुत फेर फार हुए बिना नहीं रहता। अतएव ये सब बातें सम्पत्ति-शास्त्र की विचार- सीमा के भीतर आजाती हैं। इन्हीं कारणों से इस शास्त्र के सिद्धान्तों का बिचार करने में मनुष्य की वंश-धृद्धि के सिद्धान्तों से भी मदद लेनी पड़ता है।

मतलब यह कि सम्पत्ति-शास्त्र एक बहुत व्यापक शास्त्र है । उसे मिथ- शास्त्र कहना चाहिए । पयोंकि उसकी विवेचना में कई शास्त्रों के सिद्धान्तों को मदद दरकार होती है।

तीसरा परिच्छेद।

सम्पत्ति का स्वरूप

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एक कवि कहना है:--
 

नएन । पु मना पिछा घुनघस्य मन्दवि भवस्य ।

पूनम पाने लतण्डुलचसन्धनानन्तया सतनम् ॥

अर्थात् थाढ़े वैभव धाले बड़े बुद्धिमान् आदमी को भी बुद्धि नान, तेल, घो, वावल. लकड़ी और कपड़े-लत्त की फिक्र में हमेशा क्षीण हुआ करती है। यह बहुत ठोक है। बहुत कम आदमी ऐसे होंगे जिनकी बुद्धि ने इन चीजों की चिन्ता में कभी चकर न खाया हो। जिसके पास घी है वह तेल के लिए दूसरों का मुंह देखता है, जिसके पास चावल है वह कपड़े के लिए । इसी तरह प्रायः हर आदमी को, किसी न किसी चीज़ के लिए, औरों पर शरूर, अबलम्ब करना पड़ता है। क्योंकि, मनुप्य को संसार में रहकर इतनो व्यावहारिक चीजें दरकार होती है कि वह उन सब को नहीं पैदा कर सकता । जो जुलाहा कपड़े तैयार करता है वह अपने मतलब भर के लिए कपड़े रखकर बाक़ो के बदले नमक, तेल, लकड़ी और अनाज आदि का संग्रह करता है । जो किसान गेहूँ, चना, जौ आदि पैदा करता है वह अपने खेत की पैदावार के बदले हल, फाल, नमक, तेल, मिर्च, मसाला