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विदेशी व्यापार।

ईब चीज़ एक ईश दूसरे मैश की भेजता है । वैदेशिक व्यापार का ब्रान्ततिक वाणिज्य यही मूल मंत्र है । आन्तनिक वाणिज्य से संसार का विशेष कल्याण होता है। जिस देश में वो चीज नहीं होती. या दुर्लभ होती है, वह इस वाणिज्य की बदौलत सुलभ हो जाती है । इसके सिवा घेदेशिक व्यापार के कारण पृथ्वी को उत्पादिका शक्ति भी बढ़ जाती है । यदि भिन्न भिन्न देशों में पदार्थों का विनिमय न है। तै उनका परिश्रम और मूल धन पूरे तौर पर फलदायक न हो। अर्थात् यदि प्रत्येक देश अपनी व्यावहारिक चीजें खुद ही उत्पादन करे तो परिश्रम और मूल धन को बहुत कुछ अंश व्यर्थं जाय । यहाँ यह शंका हो सकती हैं कि कैई केाई देश दूसरे देश की मपेक्षा व्यावहारिक चीजों के उत्पादन में कम कुशल होते हैं । अतपच जै देश इस काम में अधिक कुशल होगा वह अपनी बनाई या तैयार की हुई चीजें कमें कुशल देश के भेज कर वहाँ की चीज़ों की विक्री के बन्द कर देगा । परन्तु इस तरह की शङ्की निराधार है। प्योंकेि वाणिज्य का ठीक अर्थ अदला-बदल करना है । जे दैश किस देश की अधिक माल भेजेगा घडू उसके बदले वहाँ से उसका उत्पादित कुछ न कुछ महल ज़रूर लेगा । अतएघ उति-शोल देश का मोल अधिक जपने से यह नहीं साबित होता कि अघनति-शील देश का माल नहीं पता । हो, उसका भी माल बदले में ज़रूर जाता है। यदि ऐसा न होगा तो व्यापार जारी ही न हो सकेगा। जब तक उन्नतिशील देश की अपने माल के बदले माल न मिलेगा क्षध तक चद्द अपना माल भेजने में समर्थही न है । हां, कौन चीजों के बदले कौन चीजें लेनी चाहिए, यह दूसरी बात है । इसका विचार अवश्य करना चाहिए ! इस. पर इस पुस्तक के पूर्द्ध में बहुंत कुछ लिखा जा चुका है और यह दिखलाया जा चुका है कि अन्न आदि जीवनोप, चीज़ों के बदले विलास-सामग्री लेने में बड़ी हानि है। भारत जो कच बानी इंगॐद्ध आदि देश के भेज कर वहाँ से उन देशों की बनी हुई चीज़े लेता है। यद्द इस देश के लिए हितकर नहीं। अनाज, रुई, नील, जूट अदि के बदले विलायत से काँच का सामान, शराच, छाते, चित्र, खिलौने, शाल प्रादि देने से भारत को बड़ी हानि है । पर इस अन्तर्जातक बाणिज्य से होनेवाले साधारण लाभों में व्याघात नहीं आता । दो देशों में परस्पर व्यापार हुने से