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सम्पत्ति-शास्त्र।

दोनों को लाभ होता है, यह जा सर्वव्यापक सिद्धान्त है वह पूर्ववत् अटल रहता है। किस प्रकार की चीज़ दूसरे देशों के बदले में देनी चाहिए, इसका विचार इस सिद्धान्त फी सत्यता में बाधा नहीं पहुँचाता । जिन देशों में शान्ति है-जिनमें राज्यक्रान्ति का कम डर है उनमें यदि जी का अभाव या कमी हुई ते दूसरे देश इस अभाव या कमी का पूरा फर सकते हैं। यही नहीं, किन्तु परिश्रम करनेवालों की कमी भी दूसरे देशों की बदौलत दूर हो सकती है। यदि ऐसे देशों में वैदेशिक व्यापार के सुभीतै न है, और दूसरे देशों के लोग न आ सके, वे यह बात कभी न है । दूसरे देशबालों के आवागमन से देश को पूँजी भी बढ़ सकती है, परिश्रम करने बालों की संख्या भी बढ़ सकती है और विक्रेय या विनिमय-येाग्य वस्तु की उत्पत्ति का परिमाण भी बढ़ सकता है। किसी देश में वाणिज्य-व्यवसाय करने से अधिक लाभ होता देख अन्य देशबाले वहां अपनी पूंजी लगा देते हैं। इससे उनका भी लाभ होता है और जिस देश में उनकी पूंजी काम में लाई जाती है उसकी भी लाभ होता है । यदि इंगलैंड के साथ हिन्दुस्तान फा व्यापार न होता, और दोनों देशों में आवागमन का सुभीता न होता, हैं हज़ारों अँगरेज़ पूजीवाले है इस देश में कारोबार कर रहे हैं कभी न कर सकते । इससे यह न समझना चाहिए कि अकेले उन्हीं के लाभ होता है। नहीं, हज़ारों हिन्दुस्तानी व्यापारी भी उनके हाथ, या उनकी मारफ़त, माल वेच फर बहुत कुछ लाभ उठाते हैं। हां, यदि ये सच व्यवसाय हिन्दुस्तामियां हाँ के हाथ में होतें, और अँगरेजों की तरह वे भी उनके देश में जाकर पार-व्यवसाय करते, ते उन्हें और भी अधिक लाभ होता । । बिदेशी माल पर कर अधिक होने से अन्तर्जातिक याणिज्य फै। बहुत धक्षर पहुंचता है। जिस माल की तैयारी में कम लागत लगती है और जिसके भेजने में भी कम मर्च पड़ता है उस पर बेहिसाब कर लगा दिये जाने से उसकी रफ्नी धन्द हैं। जाती है। और यदि वन्छ नहीं भी हो जाती है। कम ज़रूर हो जाती है । भारतवर्ष में किसी समय रेशमी ग्रार सूती कपड़े का व्यवसाय चहुत बढ़ा चढ़ा था । इस व्यवसाय में उसकी बराबरी यारप का काई देश नहीं कर सकता था । इंगलैंड, फ्रांस, जर्मनी आदि में यहाँ के कपड़े का बेहद ख़प था । इस खेप को कम करने और अपने देश के व्यापार फा बढ़ाने के लिए हैंगलंड ने यहां के माल पर इतना अधिक कर लगा