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सम्पत्ति-शास्त्र।
अनन्त परिताप हैरता है । देश में विदेशी मालकी खप प्रति दिन बढ़ता जाता है। उसके बदले हिन्दुस्तान सिर्फ कृषि-प्रसूत अनाज देता है । इस अनाज़ की यहां भी बड़ी ज़रूरत रहती है, क्योंकि भारत में चार बार दुर्भिक्ष पड़ता है । दुर्भिक्ष के समय यदि देश में अनाज अधिक है तो ज़रूरही सस्ते भाव जिंके । पर वह सात समुद्र पार इँगलंड भेज दिया जाता है और उसे पैदा करनेवाले यहां भूख मरते हैं। बैर भेजा न जाय ते हो क्या ? गर्लंड की चीज़ों का स्वप जैर बढ़ रहा है उसका बदला चुकाया किस तरह जाय ? ईगलैड कैं। गेहूं अमेरिका और रूस से भी मिल सकता है । अतएघ थदि हिन्दुस्तान गेहू ने भी भेजें तो भी ईंगलेंड का काम चल सकता है । अर्थात् हैंगलंड का हिन्दुस्तान के गैह की चहुत जयरदह ज़रूरत नहीं । इससे उसे ईगलड में सस्ते भाव बिकनाही चाहिए । अपना अनाज सस्ते भाव वैवाने के लिए हिन्दुस्तान कै लाचार होना पड़ता है। जितनावी अधिक अनाज हिन्दुस्तान का देना पड़ता है उतनाही आधिक पूंजी लगा कर उसे भली बुरी सब तरह की जमीन बेतिनी पड़ती है। इससे ख़र्च अधिक पड़ता है। क्योंकि अच्छी ज़मीन सर्व पहलेही जैती जा चुकी है। इधर अनाज उत्पन्न करने में अधिक खर्च पड़ता है, इधर अनाज सस्ते भाई देना पड़ता है । दाने तरह से बेचारे भारत के हानि उठानी पड़ती है । पूँजी का अधिकांश किसानी में ही लग जाता है। इससे मैर कोई व्यवसाय करने के लिए काफ़ी मधया देश में नहीं रहतः । अनाजही जीविका का मुख्य साधन है। वह विदेश चला जाता है। जेई रहता है, महँगा बिकता है । अनाज भहँगा हुने से प्रायः सभी चीज़' महगी हो जाती हैं। इससे हर अदमी का सच जड़ जाता है। यही नहीं, किन्तु खाने पीने की चीज़ महँगी होने से मजदूरी का निङ्ग भी बढ़ जाता है । इन कारणों से सब चीजों का उत्पत्ति-खर्च भी अधिक है। जाता है । फल यह हावा है कि देश में संचय की मात्रा बहुतही कम हो जाती है । संचय न देने से पू जी नहीं एकत्र है।ती । फिर बड़े बड़े फळ-कारख़ाने और उद्योग-धन्धे कहिए कैसे चल सकते हैं ? सध फहीं दरिद्र फी अखण्ड साम्राज्य देख पड़ता है। अधिकांश लोगों के चौबीस घंटे में एक दफे भी पेट भर जाने की नहीं मिलता । यह बड़ी ही शोचनीय स्थिति है । अतएघ प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य है कि चह भारत की इस हृदयचिदारी स्थिति के सुधार का यथाशक यत्न करे।