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सम्पत्ति-शास्त्र।

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: । मेहुनत बाहर से आने वाली माल अपने ही यहाँ पैदा करने में खर्च होगी । यह न होगा कि खाली हुए मजदूरों को काम न मिले और बची हुई पूँजी बैंकार पड़ी रहे । हाँ, यदि माल चैदा करने के यथेष्ट साधन अपने देश में न होंगे तो उसे तैयार करने में खर्च जरूर अधिक पड़ेग्म । अतएघ चह महँगा बिकेगा । फल यह होगा कि जो लोग इसे माल के माल लेंगे उन्हें अधिक दाम देने पड़ेगे, इस से उनकी हानि हो । यद् न है, और चिर्दैश में थोड़े बनाने से तैयार हुआ माल सस्ने भाव मिले, इसी लिए विदेश से व्यापार किया जाता है। विदेश में अपने फ़ालतू माल की अप करने के लिए व्यापार नहीं किया जाता है।

किसी निश्चित क़ीमत पर अपने देश में जितना माल मिल सकता है, उससे अधिक माल यदि विदेश से मिलेगा तभी अपना फायदा है । अर्थात बदले में देने के लिए अपने पास जो माल हैं उसके बदले अपने ही देश में जो माल तैयार हो सकता है उसकी अपेक्षा विदेश से अधिक माल मिलना चाहिए । इसी बात के यदि और शब्दों में कहें तो इस तर कच्च सकते हैं कि जो माल कई देश विदेश के भेजे उसके बदले विदेश से अधिक मल अाना चाहिए। यदि यात माल की अपेक्षा आयात माल अधिक मिलेगी तभी फायदा होना सम्भव है, अन्यथा नहीं । विदेश से आने वाला भाळ यदि कम होगा, अर्थात् यदि देश से बाहर अधिक माल जायगा और चाहर से मैश में कम माल आवेगा, तै हानि होगी । कई केाई यह समझते हैं कि देश से अधिक माले बाहर आने ही में लाभ है—ायात की अपेक्षा यात माल का परिमाण अधिक होना ही अच्छा है। पर यह भूल :६ । फ्योंकि, हम औरों को जितना माल देंगे, औरों से यदि उससे अधिक पाचेंगे तभी हमें लाभ हो सकता है। पाँव मन माल देकर वह उसके वल्लले छः मन पावेंगे तो एक मन के फायदे में रहेंगे । यदि पांच मैन के घदले चार ही मन पाइँगै तौ इलटर एक मन की हमारी हानि होगी। यात की अपेक्षा आयात माले अधिक होने ही से देंश के लाभ है । इस सिद्धान्त के अच्छी तरह समझाने की जरूरत है। इस चिपय में एक चात ध्यान में रखने लायक़ हैं । वह यह है कि विदेश से कुछ भी माल अपने देश में न लाकर अपने ही देश में विदेश के माल भेजने का फाई अर्थ नहीं। यह है ही नहीं सकता। व्यवहार शुरू होने पर जो साल हम