पृष्ठ:सम्पत्ति-शास्त्र.pdf/३२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

। गवर्नमेंट की व्यापार-व्यवसाय-चुपयक नीति । ३०७ १७६५ ईसवी तक ईस्ट इंडिया कम्पनी बँगाल में व्यापार ही करती रही। साथ ही उसके मुलाज़िम भो ब्यापार करते रहे । पर इस साल लाएँ छाइय ने कम्पनी के लिए बँगाल, बिहार और उड़ासे की दीवानी' प्राप्त को । तभीसे “कम्पनी बहादुर' की राज-सत्ता का बीज भारत में चपन हुआ तभी से कम्पनी की शासन का अधिकार प्राप्त हुआ । इसके आगे कम्पनी नै व्यापार करना छोड़ दिया; पर उसके मुलाजिम, मना किये जाने पर भी, और भी है। तीन वर्ष तक व्यापार में लिप्त रहे । घड़ी मुश्किल से उन्होंने इस पेशे से चपना हाथ खींचा। तध तक इस देश का व्यापारव्यवसाय बहुत कुछ घरवाद ही चुका था। तथापि जो कुछ बाकी था चद्द भी विलायत के जुलाह और कल-कारखानेदारे को खटक रहा था। राजसत्ता कम्पनी के हाथ में आ हो चुकी थी। इससे उन लोग ने यहाँ के चर्चे । बचाये इयवसाय को भी, कम्पनी की क़ानूनी मदद से, भष्ट करने की ठानी। उनका प्रयत्न सफल भो हुआ । कम्पनी के डाइरेकृरों ने बिलायत से हुकम निकाला कि हिन्दुस्तान में कच्चा ही पैशमी माल तैयार करने वाले को उत्साह दिया जाय। उन्हीं के लिए सब तरह की सुभीता किया जाय । जो लैग रेशमी कपड़े खुद हीं बनाना चाहे उन्हें मदद न दी जाय । रेशम सागा तैयार करने वाले से कम्पनी के कारखाने में जबरदस्ती काम लिया जाये। मतलब यह कि हिन्दुस्तान ब्यवसायी सिर्फ रेशम तैयार करके विलायह भेजें और विलायती व्यवसायको उस के कपड़े बनाकर फायदा उठावें। इस विषय को सब बातें कम्पनी के हाइरेकर्स ने अपनी १७ मार्च १७६९ की चिट्ठी में सँगाल के कौन्सिल की लिने भेझौं । यहां बड़ी ही सरगरमी से उसकी परवदी हुई। परिणाम यह हुआ कि १८३३ ईसवीं तक इस देश के कितने ही कारखाने हट गये । रेशमी और सुतो दोनों तरह का कपड़ा बनना बहुत कुछ चन्द हो गया । कहां हिन्दुस्तान से करोड़ों रुपये का कपड़ा आप जाता था, कहां देंगलैंड चाले उलटर हिन्दुस्तान को अपना बनाया कपड़ा पहनाने लगे। जिस गलैंड ने १७९४ ईसवी में सिर्फ २३४० रुपये की सूती कपड़ा हिन्दुस्तान और इस तरह के और देशों को भेजा था उसीने, वीसही घर्ष बाद, १८१३ ईसवी में, १६,३२,३६० रुपये का कपड़ा भेजः । उन्नीसवीं शताक्षी के प्रारम्भ में पारलियामैंट ( हाउस आबू कामन्स ) नै पक कमिटी नियत की । उस कमिटी ने हिन्दुस्तान से सम्बन्ध रखनेवाली