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सम्पत्ति-शास्त्र।

सम्पत्ति-शास्त्र । कम हो गई। उसके बदले हजारों गई रुई और रेशम के जाने लगे और विलायत से कपड़ा उलटा हिन्दुस्तान जाने लगा। जब कम्पनी व्यापार करने से मना करदी गई तब उसके हृदय में उदारता की अंकुर उगा । तब उसे भारतवासियों पर दया साई । कम्पनी नै १८५० ईसची में पारलियामेंट से प्रार्थना की कि जिस महसूल के कारण हिन्दुस्तानी कारोबार नष्टप्राय हो रहा है वह उठा दिया जाय । पारलियामैंट के "हाउस अचि कामस" ने इस प्रार्थना पर चिंचार करने के लिए एक कमिटी बनाई। उसने जाँच प्रारंभ की । अनेक लोगों ने गवाहियां दीं। किसी किसी ने गलैंड की उस व्यापार-धिपयक नीति की बड़ी ही निर्भयता और स्पष्टता से निन्दा को जिसने हिन्दुस्तान के व्यवसाय को दबा कर विलायती व्यापार-व्यवसाय का बढ़ती की थी । इनमें से एक अधि वैसे भी थे जिन्होंने कहा कि हिन्दुस्तानी व्यवसायों और कारीगर, और उनके बाल बच्चे मर जायें तो कुछ परवा नहीं; हमें पहले अपने ब्यबसाय और अपने बाल-बच्चों की रक्षा करनी चाहिए । हिन्दुस्तानी व्यवसायियों पर हमें या ज़रूर आती है; पर अपने परिवार का उनकी अपेक्षा अधिक खयाल है । हिन्दुस्तानियों को अवस्था हमसे अराव ही क्यों न हो, हम उनके लिए अपने कुटुम्ब को कदापि कष्ट नहीं पहुँचाना चाहते ! | इस कमिटी की तफ़ोक़ात का फल यह हुआ कि लाई यलन नै हिन्दुस्तान से जाने और यहां आने वाली तम्बाकू पर जो महसूल लगता था उसे बराबर कर देने की सिफारिश की। पर “म” नामक शराब पर लगने वाले महसुल के बराबर करने से इनकार कर दिया । हिन्दुस्तान में सुती कपड़ा चनना बन्द ही हो गया था, इसलिए इस कपड़े पर भी एक सा महसूल लगाने के लिए आपने सिफारिश की। रेशमी कपड़ा तब तक भी थोड़ा बहुत हिन्दुस्तान से विलायत जाता था। अतएच यदि उस पर उतना ही महसूल कर दिया जाता जितना कि विलायती कपड़े पर था तो उसकी रफ्तनी वन्दू न होतीं। परन्तु लाट साव ने इस धिपय मैं भी दस्तंदाज़ी करने से इनकार किया । अर्थात् जिस बात में इंगलड की हानि समझो गई वह न होने पाई । १८३३ और १८५३ ईसवी के दरमियान कई दफे हिन्दुस्तानी और विलायती मलि पर लगने वाले महसूल में फेरफार हुन् । विलायत से