पृष्ठ:सम्पत्ति-शास्त्र.pdf/३५२

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चौथा भाग । कर । पहला परिच्छेद । करों की आवश्यक्ता और तत्सम्वन्धी नियम आदि । ४६७९श की राज्य-प्रणली चाहे जैसी हो-चाहें सारी सत्ता राजा के हाथ में हो, चाहे प्रजा के, चाहे थेड़ी थोड़ी दोनों के प्रजा के जान-माल की रक्षा ज़रूर होनी * चाहिए ! यह बहुत बड़ा काम है । इसकी सिद्धि के लिए बड़े बड़े प्रबन्ध करने पड़ते हैं । क़िले बनाना, फ़ी रत्नना, जहाज़ रखना, रेल और तार जारी करना, सड़कें बनवाना—ये सब काम देश की और प्रजा की रक्षा ही के लिए करने पड़ते हैं । इतनेही से गवर्नमेंट का फुरसत नहीं मिल जाती । चारो और हाकेज़नी आदि बन्द करने के लिए उसे पुलिस रखनी दी है, अपराधियों के अपराधों का विचार करने के लिए न्यायाधीश रखने पड़ते हैं, हर एक महकमे का प्रबन्ध करने के लिए योग्य कर्मचारी नियत करने पड़ते हैं, प्रजा की शिक्षा देने के लिए स्कूल खोलने पड़ते हैं। बिना रुपये के बिना खर्च के ये सब काम नहीं हो सकते ! यह सारी अटपट प्रजा ही के आराम के लिए की जाती है। अतएध प्रबन्ध-सम्वन्धी खर्च भी प्रज्ञा ही कैश वैना चाहिए । देश में अमोर, गरीब, बलवान्, निर्बल, व्यापारी, व्यवसायी अादि सब तरह के-सब पेझै के लोग रहते हैं। उन सभी के गवर्नर्मट के राज्य-प्रधुन्ध खे-लाभ पहुँचता है। इस से सरकार के जी खर्च करना पड़ता है वह भी उन्हीं से वसूल होना चाहिए । लाभ उठावें थे, खर्च कौन थे? | गघनर्मट के सुप्रबन्ध से व्यापार-व्यवसाय की भी उन्नति होती है। रेल, तार, डकखाने, सड़कें, नहर, आदि से व्यापारियों और व्यवसायियों को बहुत