पृष्ठ:सम्पत्ति-शास्त्र.pdf/३५४

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| करों की आवश्यकता और तत्सम्बन्धी नियम आदि । ३३५ फैल सकती है और विद्रोह हो सकता है। यहाँ तक कि बड़े बड़े राज्य उलट पुलटे जा सकते हैं । क्लास में जो रज्यक्रान्ति हुई थी उसका कारण यही . था कि अमीर, प्रादमियां पर न लगा कर गरीबों पर कर लगाया गया था । जैसे हर दिने का खर्च उसी की अमिदनी से चलता है वैसे ही राज्य का भी वन्थे उसी की आमदनी से चलता है। परन्तु प्रत्येक राज्य और प्रत्येक आदमी या कुटुम्ब की आमदनी और खर्च में भेद है। आदमियों की आमदनी प्रायः बँधी होती है । जिसकी जितनी आमदनी होती है उतनी ही से उसका खर्च चलता है । अर्थात् आमदनी के अनुसार खर्च होता है। पर राज्यों की यह बात नहीं। उनकी आमदनी खर्च के अनुसार बाँधी जाती है। जिस राज्य के जितना खर्च करना पड़ता है उतनी ही ग्रामदनी उसे वाँधनी पड़ती है। अर्थात् उतनाही रुपयः उसे प्रज्ञा से वसूल करना पड़ता है। तथापि कर लगाकर रुपया संग्रह करने को भी सीमा होती है। बेहिसाब खर्च करके यदि कई राज्ञा उसकी पूर्ति प्रजा से कराना चाहेगा तो प्रजा ज़रूर एतररोज़ फरेगी । टिकस लगाने के समय प्रज्ञा या उसके प्रतिनिधि हज़ारों उज़ करते हैं। उन सब का विचार करके कर लगाना पसृता है । बचत और खर्च करने में दिक्कत नहीं होती, परन्तु क्रों से आमदनी बढ़ाकर कमी के पूरा करने में हमेशा दिक्कत होती है । ये सब बातें विशेष करके उन्हीं राज्यों के विषय में कही जासकती हैं जहां राज्य-प्रबन्ध में प्रजा के दस्तंदाज़ी करने या राय देने का हक़ होता है। जहाँ एकाधिपत्य राज्य है वहां. प्रजा की बातों का कम लिहाज़ किया जाता है। उनकै हानि-लाभ का बिचार राजा ही कर डालता हैं। प्रज्ञा के अगुवा एतराज़ करते ही रह जाते हैं। जहां इस तरह की राज्य-प्रत्यली होती है वहां प्रजा फ्रे प्रतिवादों की-जा के एतराज़ की--अबहेलना करके रजा मनमाना कर लगा देते हैं। परन्तु इससे राजा और प्रजा में वैमनस्य पैदा हो जाता है। परिणाम भी इस का अच्छा नहीं होता | जब किसी कर का लैना निश्चित हो जाता है तब उसे देना पड़ता है । यदि काई देने से इनकार करे तो भी वह नहीं बच सकता । उससे जबरदस्ती फर वसूल किया जाता है । किसी किसी कर के वसूल करने में ऐसी युक्ति की जाती है कि उस का देना किसी के न ग्लले । यह न मालूम हो कि यह कर हमसे ज़बरदस्ती लिया जा रहा है। नमक पर जो महसुल