पृष्ठ:सम्पत्ति-शास्त्र.pdf/३५९

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३४० सम्पत्ति-शास्त्र । है। क्योंकि पहले तो प्रजा को स्टाम्प खरोदने में, फिर रजिस्ट्रार के आफिस में दस्तावेजों की रजिस्टरी फराने में अपना समय व्यर्थ क्र्च करना पड़ता है। फिर रजिस्ट्री के झमेले के कारण दस्तावेज़ लिखने वाला और वकील केा फ़ीस भी देनी पड़ती है। इस तरह प्रज्ञा का समय और रुपया दोनों था बहुत व्यर्थ नष्ट होते हैं। इसी ख़याल से सरकार ने स्टाग” चेचने का जगह जगह पर प्रबन्ध किया है, जिसमें लेने वालों के विशेष' कष्ट न हो । पर रजिस्टरी का झमेला बनाहीं हुआ है । संभव है किसी समय उसके भी नियमों में फेरफार करके प्रजा के लिए अधिक सुभीता कर दिया जाय | आमदनी पर जो ‘इन्कम टैक्स” नाम का कर लिया जाता है उसके वसूल किये जाने में भी प्रज्ञा का कभी कभी बहुत तकलीफें उठानी पड़ती हैं। किसुकी आमदनी कितनी है, इस बात की जाँच करने में सरकारी अधिकारियों और कर देने वाले में विवाद खड़ा हो जाता है। इस से कर देने चाली का बहुत सा समय भी नष्ट जाता है और कभी कभी रुपया भी । । चौथे नियम का मुख्य मतलब यह है कि व्यवहार की चीज़ों पर जा कर लगाया जाय वह कच्चे माल पर नहीं, किन्तु बिक्री के लिए तैयार किये गये माल पर लगाया जाय । कपास पर कर न लगाकर उससे तैयार किये गये कपड़े पर लगाना मुनासिव हाग् । कपास पर लगाने से कर देने वालों की व्यर्ध हानि हेगी, और सरकार को भी कुछ लाभ न होगा । कल्पना कीजिए कि रामदर्च ने बहुत सी कपास ग्रीद को । उस पर उले १००० रुपये कर देना पड़ा। अब उसने वह, कपास शिवदत्त के हाथ मैची यार जे कर उसने दिया था उस पर १० रुपये सैकड़े के हिसाब से मुनाफ़ा लिया । अर्थात् शिवदत्त को उसे ११०० रुपये देने पड़े। इसके बाद शिवदत्त ने उस कपास को एक मिल (पुतली घर) को बेच दी। उसने भी दिये गये कर पर १० रुपये सैकड़े मुनाफ़ा लिया । अर्थात् मिल वालों ने उसे १२१० रुपये दिये । अब, देखिए काल में गवर्नमेंट ने इस कपास पर केवल १००० रुपये कर लिया है। पर पुतली घर में पहुँचने तक उस पर कर की रक़म १२१० रुपये हो गई। अर्थात् गवर्नमेंट को जितना कर मिला, कपास लेने वालों को उससे २१० रुपये अधिक देना पड़ा । इस कपास का कपड़ा बन कर बिकने तक कर की रक़म इसी तरह बढ़ती जायगी । अन्त में उसका बोझ कपड़ा मोल लेने वालों पर पड़ेगा । कचे माल पर कर लगाने से असुल कर की अपेक्षा