पृष्ठ:सम्पत्ति-शास्त्र.pdf/३६५

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३४६ । सम्पत्ति-शास्त्र । जोड़ते जाते हैं और अन्त को जो लोग वह माल मोल लेकर व्यवहार में लाते हैं उन्हीं पर सारे कर का घोझ पड़ता है। अर्थात् मानों उन्हीं पर कर लगता है—परोक्ष भाव से उन्हीं को कर देना पड़ता है । बड़े बड़े शहरों में जो माल बाहर से आता है उस पर वहाँ की म्यूनीसिपेलिटी चुगी लगाती है । यह चुना नाम का कर भो इस तरह का परोक्ष कर है। उसका भी वोझ अन्त में माल लेनेवाले पर पड़ता है। इसतरह के फा बसूल करने के लिए गवर्नमेंट को अनेक प्रकार के नियम बनाने पड़ते हैं । अमुक रास्ते से माल लाना चाहिए, अमुक जगह पर उसे बचना चाहिए, अमुक तरह से उसका व्यापार करना चाहिएइस प्रकार की कितनीही शर्ते गचनमेंट को करनी पड़ती हैं। यह सब इस लिए किया जाता है जिसमें कई चालाकी या फ़रेब करके कर देने से वन्य न जाय । इससे व्यवसायियों और व्यापारिये को वहुधा तकलीफें उठानी पड़ती हैं। माल की उत्पत्ति आर बिक्रो अादि के सम्बन्ध में अनेक प्रतिचन्ध होने के कारगा कारखानेदारों और व्यापारियों को व्यर्थ अधिक गर्व करना पड़ता है। व्यापार-व्यवसाय फ्री उन्नति में बाधा आती है। माल पर यथैए नफ़ा नहीं मिलता । इन कारणों से, कर थोड़ा होने पर भो, माल की कीमत बहुत बढ़ जाती है और उसका बोझ अमीर-गरी सब पर पड़ता हैं। इस प्रकार के कर देश में उत्पन्न होनेवाली, बाहर से देश में आनेवाली, स्वदेश से विदेश जानेवाली, अथवा अपने ही देश में एक जगह से दूसरी ..जगह भेज जानेवाली चीज़ परलगाये जाने हैं। वें चाहे जिस समय वसूल किये जायें उनके कारण उत्पत्ति और तैयारी का खर्च ज़रूर बढ़ जाती है और वे ज़रूर महंगी बिकती है। स्वाभाविक रीति से उत्पत्ति-खर्च बढ़ने से जो परिगम होते हैं वही परिणाम कृत्रिम रीति से कर लगा कर उत्पत्ति-खर्च बढ़ाने से भी होते हैं। कर चाहे जिस समय लगाया जाय चाहे वह माल तैयार होते समय लगाया जाय, चाहे भेजते समय, चाहे बेचते समय फल उसका एकहीं सा होता है । अर्थात् कर के कारण क़ीमत बढ़ जाती है ! क़ीमत यदि अधिक नहीं चढ़ती तो जितना कर लगता है उतनी तो जरूरही बढ़ जाती है। परन्तु फर' को अपेक्षा क़ौमत के अधिक बढ़ जाने हों की विशेष सम्भावना रहती है।