पृष्ठ:सम्पत्ति-शास्त्र.pdf/३७१

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३५३ सम्पत्ति-शास्त्र । चौथा परिच्छेद । विदेश व्यापार पर कर । राज्य-प्रबन्ध के लिए रुपया दरकार होता है। बिना रुपये के गवर्नमेंट का काम नहीं चल सकता। यह रुपयाँ प्रजर पर कर लगा फर' चलूल किया ज्ञात है 1 प्रजा हो के आराम के लिए-प्रज्ञा ही की रक्षा के लिए-ज्यस्थापना होती है। इससे राजा को म्युर्म भी प्रज्ञा ही से मिलना चाहिए। इस बात का उल्लेख्न इन भाग के पहले परिच्छेद के आरंभ में हो चुका है। तदा फिर इस विषय में वही बातें लिखकर पुनरुक्ति करने की ज़रूरत नहीं। देश-प्रवन्ध्र के लिए कर देना जैसे प्रज्ञा का कर्तव्य है, वैसेही प्रज्ञा पर कर का अकारग; वोझ न ढालना राजा का कर्तव्य है। न्यायी पैर प्रजापालक जा की सदा यह इच्छा रहती हैं कि यथासंभव मेरी प्रजा सुखी रहे, और जहाँ तक हो सके मतलव से अधिक कर उससे न लिया जाय ! वह इस बात के भी सोचता रहता हैं कि जो रुपया राज्य-प्रवन्ध के लिए दरकार है उसका कुछ अंश बाहर से भी मिल सकता है या नहीं। क्योंकि, जब तक विदेश में प्राप्ति हो सके तच तक स्वदेश का भ्रम ३ करन। युकि-सत नहीं। इसी ग्याल से राजा विदेश व्यापार पर कर लगा कर देश को आमदनी बढ़ाने की कोशिश करता है। • जौं चोङ्गे बिदेश जाती हैं और चिश से जो अपने देश में आती हैं उन पर कर लगाने के दौ उद्देश हो सकते हैं । एक तो यह कि अपनी प्रजा पर कों का बोझ कम पई, अर्थात् विदेशी माल पर कर लगाफर यथा-संभव बिदै शिथों हां से रुपया घसूल किया जाय। दृसरा यद् कि विदेश से आने वाले माल पर कर लगा कर उस फी आमदनी रोकी जाय और बल्लारा अपने देश के व्यापार-व्यवसाय की उन्नति की जाय । इस पिछले उद्देश से चिदेशी माल की आमदनी का जो नियमन या प्रतिवन्ध किया जाता है उसी को नाम बन्धन-विहित या संरक्षित व्यापार हैं। इस विषय का विचार किया जाचुका है । अतएव इस परिच्छेद में सिर्फ पहले उद्देश के सम्बन्ध में कुछ कहना है ।