पृष्ठ:सम्पत्ति-शास्त्र.pdf/३७९

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३६० सम्पत्ति-शास्त्र खराब हुए बिना न रहेगी। धे कमज़ोर हो जायेंगे और बहुत संभव है कि उन्हें अनेक प्रकार की बीमारियां के फन्दे में फँसना पड़े । कुछ बीमारियाँ ऐसी होती हैं जिनकी असर बीमारों के वंशज तक पहुंचता है । पुश्त दर पुश्त उन लोगों की भी इन बीमारियों को फल भोगना पड़ता है। यदि बीमारियां न भी हुई तो काफी खुराक न मिलने से शरीर ज़रूर ही कमज़ोर हो जाता है और कमज़ोर दिमियों की सन्तान भी कमज़ोर ही होती है । यदि किसी देश या किसी जाति में मनुष्यों की संख्या स्वाभाविक सीमा से बढ़ जाती है तो प्रकृति की. बुद हो उसका इलाज्ञ करना पड़ता है। प्रकृति या परमेश्वर ने नियम कर दिया है कि मनुष्यों की वृद्धि अमुक संख्या से अधिक न हो । जब वह अधिक हो जाता है, और अधिकता के कारण मनुष्य की आवश्यकताओं के पूर्ण होने में बाधा आती है, तब दुर्भिक्ष, मरी, भूकम्य और युद्ध आदि के द्वारा प्रकृति देयी मनुष्यसंग्या कै कम कर देती है। परन्तु सम्पत्तिशास्त्र के वेत्ता वाकर साहब की राय है कि प्रकृति का यह स्खाभादिक इलाज़ जन-संख्या को कम करने के लिए यथेष्ट नहीं है। हिसाब लगाने से मालूम हुआ है कि प्रति २५ या ३० घर्ष में जन-संन्या दुनी हो जाती है । परन्तु सुर्भिक्ष और मरी आदि से इतना जनसंहार नहीं होता जितने से कि मनुष्यों को सम्पतिक अवस्था में कुछ विशेष अन्तर हो सके । ईश्वरी नियमों के अनुसार जनसंख्या की कमी का असर बहुत दिनों तक नहीं रहता। कुछ ही झाल बाद फिर जन-संन्या पूर्ववत् हो जाती है। अर्थात् जिस हिसाब से वृद्धि होती है उस हिसाब से ह्रास नहीं होता। पश्चिमी देशों के प्रायः सभी विद्वान् इस बात से सहमत हैं कि जितने प्राणी हैं सघ का जीवनमरण एक विशेष सिद्धान्त के अनुसार होता है । इस सिद्धान्त का मतलब यह है कि जो सच से अधिक चलिए, सशक्त या योग्य है वही दुनिया में चिरकाल तक रह सकता है। इस सिद्धान्त की असर मनुष्य ही पर नहीं, वनस्पतियों, पशुओं और पक्षियों तक पर पड़ता है। जिन बातों से जीवन की स्थिति है उनमें सदा फेरफार हुश करता है। जीवन धारण करने के सामान, कारण या उपकरण सदा एक से नहीं रहते । जब उनमें सहसा परिवर्तन होता है तब जीवधारियेां में भी उन्हीं के अनुकूल परिवर्तन होना चाहिए । परन्तु सब जीवधारिये को स्थिति एक भी नहीं होती । केाई उस परिवर्तित अवस्था में जीवित