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देशान्तर-गमन । रहने की शक्ति रखते हैं. कोई नहीं रखते । जिनके शरीर, स्वभाध और निवासस्थान आदिं तदनुकूल नहीं होते में उस नई स्थिति में जीते नहीं रह सकते । यही कारण है जो आज तक कितने ही पुराने पशुपक्षी और मनुष्य-जातियाँ नष्ट हो गई । उनका कहीं पता नहीं चलता | रह सिर्फ बही प्राणी गये जो उस परिवर्तित अवस्था में जीते रहने की शक्ति या सामर्थ्य रखते थे। कल्पना कीजिए कि किसी देश-विशेष की अबोहवा में समुसा पेसा परिवर्तन हो गया कि वह चौपायों के लिए बहुत ही हानिकारी है । इस दशा में जा चौपायें इस चोहवा की सहन कर सकेंगे वही जीते रगे, बाक्ली सव मर जायँगै। दुनिया में इस तरह का फेरफार अराषर' होता रहता है। फल यह होता है कि परिवर्तित अवस्था में रह सकने योग्य सिर्फ सशक्त प्राणी जंच रहते हैं; अशक्त, निर्बल, रोगी, बालफ और सूखे सव नष्ट हो जाते हैं। साबादी के कर्म करने का यह ईश्वर-निर्दिष्ट नियम मनुष्यों के छोड़ फर और प्राणियों के सम्बन्ध में अधिक कारगर होता है। क्योंकि ज्ञान की मात्रा कम होने के कारण और प्राणी अपने अशक्त और निर्बल सज्ञासिंयेां को रोग आदि से बचाने का सामर्थ्य नहीं रखते। चौपाथी के बच्चे बड़े होते ही अपनी माँ से अलग हो जाते हैं। फिर चाहे वे भूस्खें रहे, चाहे प्याले, चाहे मरें, चाहे जिथे, माँ को उनकी कुछ भी परवा नहीं रहती। परन्तु मनुष्य का यह हाल नहीं। मनुष्य अपनी सन्तति की रक्षा करने की अधिक शक्ति रखता है। रोगी होने से दवा पान करता है। भूगने-प्यासे होने से जिलाता पिलाता है। इससे पूर्वोक्त नैसर्गिक नियम को मनुष्यजाति पर कम असर पड़ता है। तथापि पड़ता जरूर है। क्योंकि हर कुटुम्ब अपने ही कुटुम्विर्यों की परवा करता है, औरों की नहीं । सय की यही इच्छा रहती है कि हम खूष आराम से रहें । हुमी की सारी धनदौलत मिल जाय । बल में हमी भोसलेन या रुस्तम हो जाँय । क्वाई फाई लोग तो यहां तक चाहते हैं कि इस दुनिया के अकेले इमी घारिस हुन जय । अतएव मानवी सहानुभूति की पहुँच दूर तक नहीं होती । उसकी सीमा वहुत परिमित्र हैं। वह अपने ही कुटुम्य या अपने ही सम्बन्धियां और इष्ट मित्रों तक पहुँचती हैं। इस कारण जनसंख्या के कम करने के ॐ नियम ईश्वर ने बनाये हैं उनमें विशेष आधा नहीं आतीं। ईश्वरी नियमों 46