पृष्ठ:सम्पत्ति-शास्त्र.pdf/३८३

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३६४ समचि-शास्त्र । दर्शन करते तो दयाई हो घर उन्हें कोई नया शास्त्र-वचन जरूर विधिबद्ध करना पड़ता । मनुष्यों की जितनी वंश-वृद्धि होत है, देश में यदि उसी वृद्धि के अनुसार' धनागम न हुआ, तो कही घर्ष के दुर्भिक्ष से देश का देश उजाड़ हो सकता है। अन्न न मिलने, था वन ही थौड़ा मिलने, से शरीर दुर्बल हौ जाता है; अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं, और बहुत ही थोड़ी शरीरपीड़ा से मनुष्य की इस क से प्रस्थान करना पड़ता है। अतएव जिस देश के लिए अधिक धनागम का द्वार बुला न हो उसके लिए पेंश-धृद्धि फा होना बहुत ही हानिकारी हैं। भारत में धनाग्रम चहुत कम होता है। पर वंशवृद्धि बहुत अधिक होती है । फिर यहां की सम्पत्ति का एक बहुत बड़ा अंश हर साल विलायत चली जाता है । पाश्चात्य सभ्यता की कृपा से मनुष्य का बिहास-द्रव्य-प्रेम बढ़ता जाता है । आमदनी तो अधिक नहीं, पर वर्च अधिक होता जाता है। विवाद-प्रथा पूर्वयन् सनी हुई है। अतएव अविवाहित रहने से जन सैया की वृद्धि में जो प्रतिबन्ध होता है का भी नहीं हो सकता। किसी और तरह से भीकिसी विवेकजन्य प्रतिवन्ध द्वारा भी-वंश-नृद्धि नहीं की जाती । इस दशा में मनुष्य-संग्या कम करने का एक मात्र उपाय देशान्तर-गमन फहा जा सकता है। परन्तु जब तक विवेकजन्य अपत्य-प्रतिबन्ध न किया जाय। तब तक देशान्तर-गमन से भी विशेष लाभ होने की संभावना नहीं है। फ्याकि चाहे जहां लोग जाकर रहे उनको संयी ज़रूरही चहेगी और कुछ दिनों में नई जगह में भी मतलब में अधिक अादमी हो जायेंगे । वहाँ भी मनुष्यसंग्ल्यर चढ़ने से मज़दूर का निर्ब कम हो जायेगा । अनाज़ महँगा चिकने लगेगा, और व्यवहारोपयोगी चीजें काफ़ी तौर पर न मिलेंगी । फिर पक चार बात यह है कि जिन को अपने ही देश में खाने पीने की चीज़ यथेष्ट मिलती हैं में विदेश जान पसन्द न करने । और जो गरीब हैं उन्हें अन्य देश बाले अपने देश में अाने नहीं देने । तथापि यदि जन-सान्या का कुछ अंश देशान्तर-गमन कर जाय तो थोड़े समय के लिये तो ज़रूर ही त्यक्तदेश के लाभ पहुंचे। | भारतवासियों को अपना देश हद प्यारा है । उसे मरते दम तक नहीं छोड़ना चाते 1 जहां तक उन्हें अपने घर, गाँव, नगर या देश में