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ज़मीन।


अधिक हो ही नहीं सकती। उर्वरा शक्ति होने पर भी जिस ज़मीन में पूरी पैदावार नहीं होती उसे रोगी समझना चाहिए। अधिक पूंजी और अधिक मेहनत के रूप में दवा देकर उसकी स्वाभाविक उर्वरा शक्ति बढ़ाई जा सकती है। अर्थात् वह उत्पादकता की ऊपरी सीमा तक पहुँचाई जा सकती है। उस सीमा पर पहुँच जाने पर फिर अधिक खर्च करने से कोई लाभ नहीं होता।

प्रायः यही बात ज़मीन के भीतर प्राप्त होने वाली चीजों के विषय में भी कही जा सकती है। इस देश में लोहे और कोयले की कितनी ही खानें हैं। पहले इन चीजों को खोद कर बाहर निकालने में इतना ख़र्च पड़ता था कि लाभ के बदले हानि होती थी। क्योंकि रेल के न होने से इन चीजों को दूर दूर भेजने में बहुत ख़र्च पड़ता था। पर अब रेल हो जाने से ख़र्च कम पड़ने लगा है। अतएव अब कोयले और लोहे को सम्पत्ति का रूप प्राप्त हो गया है। जिन खानों से ये चीजे़ं निकलती हैं वही खोदते खोदते जब बहुत गहरी हो जायँगी तब खर्च अधिक पड़ेगा और सम्भव है खर्च की अपेक्षा लोहे और कोयले की क़ीमत कम हो जाय। इस दशा में उनका निकालना बन्द हो जायगा। क्योंकि खानि जितनी ही अधिक गहरी होगी, फ्री मन कोयला या लोहा निकालने का ख़र्च भी उतना ही अधिक पड़ेगा। यह ख़र्च अधिक होते होते जब कोयले की क़ीमत से अधिक हो जायगा तब लाचार होकर खानि का काम बन्द करना पड़ेगा।

सारांश यह कि ज़मीन की उत्पादकता की सीमा है। सीमा तक पहुँच जाने पर अधिक पूंजी लगाने और अधिक परिश्रम करने से भी अधिक सम्पत्ति की प्राप्ति नहीं होती। जब तक इस सीमा का अतिक्रम नहीं हुआ तभी तक उत्पादकता बढ़ाने की कोशिश कारगर होती है। अधिक पूंजी लगाने से मतलब खाद, सिंचाई और औजारों आदि में अधिक ख़र्च करने से है।

जमीन की उर्वरा शक्ति पानी पास होने, अच्छे औज़ारों से काम लिये जाने, खाद डालने, किसी मंडी या शहर के पास होने आदि कारणों से बढ़ जाती है।

सब ज़मीन एक सी नहीं होती। कोई बहुत उपजाऊ होती है, कोई कम, कोई बिलकुल ही नहीं। कहीं कहीं यह भेद प्राकृतिक होता है। जिस ज़मीन में कभी खेती नहीं हुई और बहुत अधिक पथरीली या रेतीली होने के कारण