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सम्पत्ति-शास्त्र ।

जिसमें ग्येतो हो भी नहीं सकती, अथवा यदि खेती हो भी तो पैदावार बहुत कम हो, उसे स्वभाव हो ले वैसो समझना चाहिए । अर्थात् उसका वह रूप प्राकृतिक है । उसमें पौधों की खूराक प्रकृति ने ही नहीं पैदा की, या को है ना बहुत कम । परन्तु जिस जमोन का उपजाऊपन खेतो करते करते कम हो गया है. अर्थात् जिसमें पौधे अपनी खूराक बद्भुत कुछ ग्वा चुके हैं, उसका उपजाऊपन बढ़ाया जा सकता है। इसी तरह जो जमीन प्रातिक रूप में पड़ी है, जिसमें कभी खेती नहीं हुई, पर जाखेतो के लायक ज़रूर है, उसकी भी उर्वरा शक्ति बढ़ाई जा सकती है । जैसे आदमी के लिए खूराक । दरकार है वैसे ही पौधों के लिए भी दरकार है । इस लिए पौधों को अच्छी और यशेपू खूराक पहुंचाने और जिन वानों से उनकी शक्ति बढ़े उन्हें करने से घे खूब बढ़ते हैं और पैदावार को बढ़ाते हैं। जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाने ही से यह बात हो सकती है। अथवा यदि यह कहें कि पौधों की खुराक हो का नाम जमीन को उर्वरा शक्ति है तो भी कह सकते हैं।

जिस जमीन में स्वाभाविक उर्वरा शक्ति है उसी में अधिक लागत लगाने

और अधिक मेहनत करने से उपज अधिक हो सकती है। जिसमें यह शक्ति नहीं है उसमें चाहे जितनी लागत लगाई जाय और चाहे जितनी मेहनत की जाय कभी उपज अच्छी न होगी। अतएच ज़मीन की अर्थोत्पा- दकता का मुग्न्य कारण उसका उपजाऊपन है । जमीन जितनी ही अधिक उपजाऊ होगी उतनी ही अधिक पैदा घार-उतनी ही अधिक सम्पत्ति- उससे प्राप्त होगी। जिस जमीन में उत्पादक शक्ति तो है, पर कम है, उसकी वृद्धि कृत्रिम उपायों से हो सकती है। इनमें से पहला उपाय प्रावपाशी है। सौंचने से पैदावार बढ़ती है-जमीन की उर्वरा शक्ति अधिक हो जाती है-यह कौन नहीं जानना ? इग्नी तरह अच्छी ग्वाद मे भो उर्वरा शक्ति अधिक हो जाती है। योरप और अमेरिका वालों ने अच्छो वाद हो की बदौलत ज़मीन की पैदावार को कई गुना अधिक बढ़ा दिया है। उन्होंने रसायन-शान को सहायता से यह जान लिया है कि किस जिन्स के लिए कैसी और कितनी बाद दरकार होती है। खेती में जो औज़ार काम आते हैं उनका सुधार करने से भी ज़मीन की उत्पादक शक्ति बढ़ जाती है। हमारा सैकड़ों वर्ष का पुराना हल अभी तफ वैसा ही बना हुआ है। यदि नई तरह के