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मेहनत।


जो बूटियां जब शहरों और बाजारों में परिश्रमपूर्वक लाई जाती है तब विनिमयसाध्य हो कर सम्पत्ति हो जाती हैं। इसका एक मात्र कारण श्रम है।

शारीरिक और मानसिक, दोनों तरह के श्रमों से, पदार्थों को सम्पति का रूप प्राप्त होता है। प्रकृति सिर्फ सम्पत्ति की कश्ची सामग्री पैदा करती है; श्रम उसे सम्पत्ति के स्वरूप में बदलता है। आदमियों को ज़रूरतें प्राकृतिक साम्नी से कुदरती चीज़ों से-तब तक अच्छी तरह नहीं रफा होती जब तक श्रम की मदद नहीं मिलती। आप ज़रा अफ्नो टोपी, साफै या कोट ही को देखिए । जिस व्यवहार योग्य दशा में आप उन्हें देखते हैं उसमें लाने के लिए कितनी मेहनत-कितमाश्रम-दरकार है। इसी तरह हमारे प्राचीन पण्डितों ने दर्शनशास्त्र या उपनिषद् लिखने, अथवा डारबिन, स्पेन्सर, मिल आदि इंगलैंड के विद्वानों ने अपने अपने अनमोल अन्य रचने, में कितनी दिमागो मेहनत की होगो-कितनी ज़ाफिशानो को होगी । यह उनके परिश्रमही का फल है जो उनके उत्तमोत्तम ग्रन्थों से हम इतना लाभ उठा रहे हैं।

असभ्य अवस्था में सम्पत्ति की उतनी जरूरत नहीं होती ! अफ्रिका, अमेरिका और आस्ट्रेलिया प्रादि के असभ्य जंगली फल, फूल और मूल स्नाकर अपनी क्षुधानिवृत्त, और पेड़ों को छाल और पत्ते पहन कर अपनीलला निवारण, कर लेते हैं । उनको सम्पत्ति की अपेक्षा नहीं । प्राकृतिक सामग्री से ही उनका काम चला जाता है । पर सभ्यता का संचार होते ही सम्पत्ति का ज़रूरत पैदा हो जाती है । सभ्यता और सम्पत्ति का हद सम्बन्ध है। सभ्यता को अभाव या आवश्यकता की मां कहना चाहिए । सभ्यता की प्राप्ति होते हो मनुष्य को नई नई चोज़ पाने की इच्छा होती है। उसकी ज़रूरत बढ़ जाती हैं। इसीसे तरह तरह की चीज़ों को उत्पन्न, तैयार और रूपान्तरित करके उन्हें विनिमयसाध्य करने के लिए मनुष्य को मेहनत करनी पड़ती है । अच्छे अच्छे मकान बनाने, अच्छे अच्छे कपड़े पहनने, अच्छे से अच्छा भोजन करने की वासना की उत्पादक सभ्यता ही है । जो जाति जिननी अधिक सभ्य है, जरूरतें भी उसको उतनीहो अधिक प्रबल हैं- वासनायें भी उसको उतनीही अधिक ऊँची हैं। सभ्यता और सम्पत्ति का ओड़ मस्खण्ड है । सभ्य होकर सम्पचि को इच्छा न रखना असम्भव है। फलों से अवनत वृक्ष लतादि के नीचे रह कर भी, और रत्नराशि से पूर्णोदर पृथ्वी के अपर वास करके भी, कर्मफला बुद्धि से झोन और परिश्रम के लाभों से अमान