पृष्ठ:सम्पत्ति-शास्त्र.pdf/४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८
सम्पत्ति-शास्त्र।


वन-मनुष्य अनेक प्रकार के कष्ट उठाते हैं। इस बात को देख कर कॉन समझदार आदमी यह कहने का साहस करेगा कि ईश्वर या प्रकृति के दिये हुए वृक्ष-लता और भूमि आदि से, उनको स्वाभाविक अवस्था में परिवर्तन किये बिना, सम्पत्ति प्राप्त हो सकती है ? चाहे पेड़ों के फल हों, चाहे खानि के रक्षा हो, चाहे जंगल के जोष हो, चाहे जल को मछलियां हों-जन तक मनुष्य मेहनत करके उनसे अपनी ज़रूरतों को रफा नहीं कर सकता तब तक उन चीज़ों को सम्पत्ति का रूप नहीं प्राप्त हो सकता-तब तक उनकी गिनतो धन में नहीं हो सकती। अतपय पदार्थो को सम्पत्ति का रूप देने के. लिए श्रम को बड़ी ज़रूरत है। श्रम वह चीज है जिससे खाने, पोने और पहनने को 'व्यावहारिक चीजें मनुष्य के लिए सुलभ हो जाती हैं। आवादो बढ़तो है ; और साथ हो सम्पत्ति की भी वृद्धि होती है।

श्रम का लक्षण।

योरप के सम्पत्ति-शास्त्र-पेत्ताओं ने कई तरह से श्रम का लक्षण किया है । पर सब का मुख्य प्राशय एक हो है । प्रसिद्ध विद्वान मिल के अनुसार श्रम का काम पदार्थों को गति देना है । अथवा यो कहिए कि श्रम वह वस्तु है जिसके द्वारा एक चीज़ दूसरी से लाई जाती है या दूसरों की तरफ पहुंचाई जाती है । अथवा श्रम वह वस्तु है जो चीजों उचित स्थान में रखने का काम करती है । विचार करने से इन सव लक्षणों से एकहो अर्थ निकलता है । वह अर्थ पदार्थो को गति देना है। क्योंकि बिना गति प्राप्त न कोई चीज़ कहाँ से उठ सकती है और न कोई कहीं रक्खी जा सकती है। जितने जड़ पदार्थ हैं श्रम उनको गति देता है । वामी काम प्राकृतिक नियमों के अनुसार उन पदार्थों के स्वाभाविक गुण प्रापहो पाप करते हैं। उनके लिए श्रम को सहायता नहीं दरकार होतो ।

उदाहरण के लिए लकड़ी के एक तन्ते को लीजिए । वह किस तरह बना है ? पेड़ काटने में कुल्हाड़ो को गति देने से और पेड़ गिर जाने पर आरे को गति देकर उसके तो के भीतर चलाने से। मकान बनाने में, खेत जोतने में. कपड़ा बुनने में सब कहीं पदार्थो को गति दिये बिना काम नहीं चल सकता । इस गति देने ही का नाम श्रम है। इसी वस्तु सञ्चालन को भय कहते हैं । यही मेहनत है।