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सम्पत्ति-शास्त्र।


समझना चाहिए कि इन सिद्धान्तों को मानना मनुष्य का प्रावश्यक कर्तव्य या धर्म है। दानपान को दान देना-अन्धे अपाहिजों को वैरात करना- सदाचार. सुनीति और सद्धर्म को बात है। अतएव ऐसे विषयों में सम्पत्ति शास्त्र के नियम चेदवाश्य नहीं माने जा सकते । सम्पत्ति-शास्त्र की अपेक्षा धर्म-शान का जो अधिक कायल है वह खुशी से दानपात्रों को दान दे सकता है।

श्रम की अर्थोत्पादक शक्ति ।

जैसे सब भूमि एकसी उत्पादक नहीं होतं. वैसेही सब श्रम भी एकसा, उत्पादक नहीं होता कभी वह कम उत्पादक होता है. कभी अधिक । इसके कारण हैं । जमीन के अधिक उर्वरा होने: श्रमजीवियों के सवल. मजबूत, शिक्षित, कुशल और विश्वासपात्र हाने श्रम-विभाग होजाने, कला से काम लेने आदि से श्रम की उत्पादक शक्ति बढ़ जाती है। कल्पना कीजिए कि किसो लाहार ने चार दिन मेहनत करके एक सेर ईसपात तैयार किया। उसे उसने घड़ी का काम करनेवाले एक दुकानदार के हाथ दो रुपये की बेत्रा। दुकानदार ने उस ईसपात की "हेयर स्प्रिंग्ज" अर्थात् बाल-कमा- नियां बनवाई। उनके बनाने में इतनी कुशलता से मेहनत की गई और पेसे से यन्त्रों से काम लिया गया कि दो रुपये की चीज़ दो हजार की होगई ! यदि फलों की सहायता से शिक्षित और कुशल कारीगर इस काम को दिल लगाकर न करते तो उनका श्रम कभी इतना उत्पादक न हाता । अतएच कारीगरो और कलों का उपयोग इस उत्पादकता के कारण हुए ।

कोई कोई जाति स्वभावही से अधिक मेहनतो होती है । दक्षिण के हम्मालों अर्थात् कुलियों को देखिए । कैसे मज़वृत्त होते हैं। ढाई तीन मन का वज़नो घोरा कुल सा उठाकर पोठ पर रख लेते हैं और स्टेशनों पर सुबह से शाम तक काम किया करते हैं । अब कानपुर, इलाहाबाद और लखनऊ.आदि के कुलियों को देखिए । बदन भी उनका उतना मजबूत नहीं और वज़न भो वे उतना नहीं उठा सकते । इससे स्पष्ट है कि संयुक्त प्रान्त के कुलियों की अपेक्षा दक्षिणी हम्मालोंका श्रम अधिक उत्पादक होगा और जो लोग उनसे काम लेंगे उनको अधिक लाभ भी होगा | यह एक जाति या समुदाय की बात हुई । जुदा जुदा हर आदमी के विषय में भी यही कहा