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मेहनत ।


उसकी कोई अच्छी दवा नहीं। पर अविश्वासपात्रता, मूर्खता, असंयमशीलता आदि दोप ऐसे हैं जो शिक्षा के प्रभाव से दूर हो सकते हैं । यदि देश में शिक्षा का प्रचार होजाय और श्रमजीवी लोग शिक्षित होजायें तो उनके ये दोप बद्भुत कुछ दूर होसकते हैं । क्योंकि शिक्षित आदमो विश्वास और संयमशीलता के गुणों को अच्छी तरह जान जाते हैं। इससे वे संयम- शील और विश्वसनीय बनने की कोशिश करते हैं। शिक्षा से उनकी बुद्धि परिमार्जित हो जाती है ; उनके शान की वृद्धि हो जाती है, उन्हें उन्नति के उपाय सूझने लगते है। इस कारण धे अधिक सम्पत्ति पैदा कर सकते हैं- उनका श्रम अधिक उत्पादक होजाता है। इससे उन्हें खाने पीने और कपड़े आदि की कमी से कष्ट नहीं उठाना पड़ता । उनका शरीर भी सशक बना रहता है । जिस देश के मजदूरों को उचित और उपयोगी शिक्षा मिलती है उस देश की सम्पत्ति हो नहीं बढ़ती, किन्तु उसकी राजनैतिक और सामा- जिक अवस्था भी सुधर जाती है । इंगलैंड, फ्रांस, जरमनी, अमेरिका मौर जपान इसके प्रत्यक्ष उदाहरण है। एक बात यहां पर और कहनी है कि जमीन के सम्बन्ध में श्रम की उत्पादकता बहुत कुछ ज़मोन के उर्वरा होने पर अवलम्बित है । यदि जमीन स्वभावही से उर्वरा है-यदि उसमे स्वभावही से सम्पत्ति पैदा करने की शक्ति है-तो अधिक श्रम करने से अधिक सम्पत्ति ज़रूर पैदा होगी । पर यदि यह बात नहीं है तो बहुत श्रम से कुछ लाभ न होगा । जमीन उत्पा- दक होने पर थोड़ी मेहनत से भी बहुत सम्पत्ति पैदा हो सकती है। अन्यथा वाहुत मेहनत भी व्यर्थ जाती है ।

श्रम-विभाग।

श्रम की उत्पादकता के विषय में ऊपर जो कुछ लिखा गया यह बहुत करके मनुज्य के मन से सम्बन्ध रखता है। अर्थात् यहाँ तक सम्पत्ति की उत्पत्ति के मानसिक कारणों का विचार हुआ । पर सम्पत्ति की उत्पत्ति के स्थूल कारण भी हैं । अतएव उनके विषय में भी कुछ कहना है ।

मनुष्य अपनी आदिम या असभ्य अवस्था में अपने सब काम प्रायः खुदही करता है। वही अपने झोंपड़े बनाता है, वही तोर बनाता है, वही जान- चरों की खाल या पेड़ों के पत्त ओढ़ने या कमर में लपेटने के लिए तैयार
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