बात है जिसके विपय में अधिक कहने की ज़रूरत नहीं | क्योंकि गरीब से
भी गरीब किसान का काम बिना सुचे, फावड़े और कुल्हाड़ी आदि
औज़ारों के नहीं चल सकता । कलों से कितना जल्द' और कितना अच्छा
काम होता है, कपड़ा सोने की कल इस बात का एक सौधा सादा प्रत्यक्ष
उदाहरण है । यदि रेल का इंजन न बनता तो लाखों मम माल एक जगह
से दूसरी जगह इतने थोड़े समय और इतने थोड़े खर्च से कभी, न पहुँच
सकता। जितने बड़े बड़े पुतलीघर और कारखाने हैं प्रायः सबमें कलों से
ही काम लिया जाता है। हाथ से काम करनेवाले आदमी इन कारखानों की
बराबरी नहीं कर सकते। इससे श्रम की उत्पादक शक्ति बहुत बढ़ जाती
है; माल बहुत तैयार होता है , और लागत कम लगने से चीजें बहुत सस्ती
मिकतो हैं । कलों के प्रयोग से ऐसे ऐसे काम होते हैं जो आदमी से होही
नहीं सकने । कुछ लोगों की समझ है कि कलों के प्रचार से मेहनत मजदूरी
करके पेट पालनेवालों का रोज़गार बहुत मारा जाता है । पर सम्पत्तिशास्त्र
के प्राचार्यों का मत है कि जो लोग ऐसा कहते हैं वे भूलते हैं। कलों के
प्रचार से पहले कुछ दिन तक श्रमजीवियों को पड़ी तकलीफ़ ज़रूर होती है,
पर थोड़ेही समय बाद वे कोई और व्यवसाय करने लगते हैं। इससे उनकी
तकलीफ़ जाती रहती है । यदि ऐसा न होता तो रेलवे और ट्रामवे से जिन
लाखों इके और गाड़ीवालों का रोज़गार मारा गया ये भूखों मर गये होते ।
सम्पत्ति की उत्पत्ति से व्यय, अर्थात् खर्च, का गहरा सम्बन्ध है। इससे
उसका भी विचार थोड़े में कर देना बहुत जरूरी है । इस विचार के लिए
यही स्थल अच्छा है । क्योंकि, जैसे श्रम के दो भेद है एक उत्पादक, दूसरा
अनुत्पादक वैसेही खर्च के भी दो भेद हैं। खर्च कम होने से सम्पश्चि
बढ़ती है और अधिक होने से घटती है। और, सम्पत्ति घटती तभी है अब
खर्च बहुत पड़ता है या व्यर्थ जाता है । जिस खर्च का बदला नहीं मिलता
वह व्यर्थ नहीं तो क्या है ?