पूँजी सञ्चय का ही फल है । यदि सञ्चय व किया जाय तो पूंजी उत्पन्न ही न हो । परन्तु जैसा इस देश के नादान आदमी करते हैं, पूँजी को ज़मीन में गाड़ कर या सन्दूक में बन्द करके न रखना चाहिए। और न उसके अधिकांश को जेचर के रूपही में बदल डालना चाहिए । ऐसा करने से पूँजी जितनी की उतनी ही रहती है ; वह बढ़तो नहीं । बढ़ना तो दूर रहा जेषर बनवाने से तो वह उलटा घट जाती है और उसका न बढ़ना मानों देश की पूंजी की वृद्धि का द्वार बन्द करना है । पूँजी सफल होने के लिए--उससे काम निकालने के लिए--उसे खर्च करनाहीं चाहिए । बिना उसका उपयोग किये उससे विशेष लाभ नहीं हो सकता । सम्पत्ति की उत्पत्ति के जो कार सर हैं, पूँजी भी उनमें से एक है । अब ख़याल करने की बात है कि जिस पूँजी से नई सम्पत्ति न उत्पन्न हुई यह सम्पत्ति की उत्पत्ति में सहायक क्यों कर मानो जा सकेगी? उसकी सहायता यही है कि श्रमजीनियों के वह काम आवे : उससे फलें और प्रौज़ार खरीदें औय ; कारखानों की इमारते आदि बनें । यदि ये जाने न होंगी, यदि इनके लिए पूँजी खर्च न की जायगी, तो, उससे सम्पत्ति न उत्पन्न होगी। अतएव यह एक निश्चित लिद्धान्त है कि पूंजी का मर्च होनाही चाहिए । पर याद रखिए, विलास- द्रव्यों के लिए नहीं । हिन्दुस्तान के निवासियों को पूँजी-विपथक यह सिद्धान्त ध्यान में रखना चाहिए और अपना सञ्चित धन जमीन या सन्दूक के हवाले न कर देना चाहिए । और कुछ न हो सके तो किसी विश्वस- नीय चंक या महालनही के यहाँ उसे लगा देना चाहिए ; या गवर्नमेंट का कागजही बरीद कर लेना चाहिए। उससे उन्हें फ्री सदी तीन चार रुपये साल सूद तो मिल जायगा और पूंजी की पूंजी बनी रहेगी। इस तरह सूद के रुपये के रूप में कुछ तो नई सम्पत्ति पैदा होगी।
खर्च करनेहीं से पूँजी का अभीष्ट सिद्ध होता है। तभी उससे नई
सम्पत्ति पैदा होती है। परन्तु चर्च एक तरह का नहीं होता । कोई चीज़
एकदम खर्च हो जाती है.-काई धीरे धीरे खर्च होती है। खर्च के हिसाब
से पूँजी दो प्रकार की होती है। एक घह जो एकदम खर्च हो जाती है-