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सम्पत्ति-शास्त्र।

गल्ला खेत कटने पर ज़रूर. मिलना चाहिए । क्योंकि यदि घर की लगाई हुई पूँजी भी न वसूल होगी तो वह किसानी करहीगा क्यों ? पर अचल पूँजी की यह बात नहीं है। उसकी मदद से जो सम्पत्ति उत्पन्न होती है उसकी कीमत एकही दफे में अञ्चल पूंजी का सारा बदला नहीं देती। और, न देनाही चाहिए। क्योंकि ऐसी पूँजी एकही दर्फ में तो खर्च होती नहीं। एक दर्फ दो रुपये का हल लेलेने से कई बरस के लिए छुट्टी हो जाती है । उसका धीरे धीरे उपयोग होता है। हर साल थोड़ा थोड़ा वर्च होता है। अतएव जब तक वह काम दंगा, कम काम से उसकी कीमत वसूल होती रहेगी । चल और अञ्चल पूँजी से सम्बन्ध रखनेवाली ये सब बातें ध्यान में रजने लायक हैं।

चल और अचल पूँजी से होनेवाले हानि-लाभ

मजदूरों को जो मज़दूरी दी जाती है घट चल पूँजी सेही दी जाती है । दश में चल पूँजी जितनीही अधिक होगी मजदूरों को मजदूरी भी उतनीही अधिक मिलेगी । और जिननीहो वह कम हो जायगा उतनीही कम मजदूरी मिलेगी। चल पूंजी की यदि अचल पूजी बन जाय. तो भी यही बात होगी- तो भी मजदूरों को मज़दूरी कम मिलने लगेगी । कल्पना कीजिए कि कोई व्यवसायी तेल का रोज़गार करता है। उसने एक कारखाना खोल रक्षा है जिसमें सरसों, अलसी, और अंडी आदि से नेल निकाला जाता है । उस काम के लिए उसे जितने मजदूर रखते पड़ते हैं उनको उस साल में तीन हजार रुपये मजदूरी देनी पड़ती है । अब यदि व्यवसायी उसी काम के लिए जिसे इतने मज़दूर करते हैं, एक हजार रुपय का एक यंत्र मँगाले. तो इत्तने रुपये उसकी चल पूंजी से ज़रूर हो कम हो जायगे । अतएव उनसे मजदूरों को हाथ धोना पड़ेगा। मजदूरों का काम जब पेंच से होने लगेगा तब उनकी संख्या भी घट जायगी । फल यह होगा कि उन्हें हानि पहुँचेगी। यदि देश में फलों की अधिकता हो जाती है तो बहुतसी चल पूंजी अचल पूंजी बन जाती है । इससे मजदूरों का रोजगार मारा जाता है । और यदि नहीं भी मारा जाता तो उनकी मजदूरी का निर्ख कम हो जाता है ।

परन्तु चल पूँजी के अञ्चल हो जाने से मजदूरों को जो हानि होती है वह स्थायी नहीं होती। कुछही समय तक उन्हें हानि उठानी पड़ती है।