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सम्पत्ति-शास्त्र।

जाता है । क्योंकि ऐसी चीजों की उत्पत्ति से उसो देश को सम्पत्ति बढ़ती है जो उन्हें पैदा करता है, उसकी नहीं जो उन्हें मोल लेकर खर्च करता है । चूड़ियां और कपड़े आदि विदेशी चीजें हैं। उनमें लगी हुई अचल पूजी से इस देश को कुछ भी लाभ नहीं होता। यही कारण है कि मनिहार और मुलाह यहां भूखों मर रहे हैं। यदि यही चीजें यहां वनती, अर्थात् यदि यहां को चल पूँजी अचल बनाकर कपड़े और चूड़ियां बनाने की कलें मँगाई जाती तो जरूर इस देश को लाभ पहुँचता और जरूर कुछ दिनों में औरों को तरह इन चीजों का पेशा करनेवालों को भी दशा सुधर जाती ।

मजदूरों का पोपण ।

नैयार की गई व्यवहारिक चीज़ माल लेने से मजदूरों का पापरा नहीं हाता । अथवा याँ कहिए कि माल के खप से मजदूरों की रोजी नहीं चलती। किसी की बनाई हुई चीज़ माल लेना उसे पूजी देना नहीं । उस चीज़ के बदले रूपया पैसा देना उसका रूपान्तरमात्र कर देना है। कल्पना कीजिए कि आपने किसी पुतल्लोघर से एक गांठ कपड़ा बरोदा । इस गांठ के बनने में जो पूजी लगी है वह उसके मालिक ने पहले ही वर्च कर दी है, और कपड़ा बनते वक्त जिन लोगों ने काम किया है उन्हें मजदूरी के रूप में पहले हो मिल चुका है । आपने ना यह गाँट आज ला ! पर बन चुके इसे महीनों और मजदूरों को मज़दूरी पाये हुए भी महीनों हुए । आपने जो कुछ दिया उससे न एक काडो मजदूरों ही को मिली, और म कपड़े में लगा हुई पूँजी के किसी और ही अंश को पूर्ति उसने की । वह सब ता कारखाने के मास्टिक की पूंजी से हो चुका । आपने रुपया देकर सिर्फ कपड़े का बदला कर लिया । और कुछ नहीं। इससे यह सिद्ध हुआ कि जो पूँजी माल तैयार करने में खर्च होती है उसी से मजदूरों का पेट पलता है और उसी की वृद्धि से उनका अधिक काम और अधिक मजदूरी मिलती है। जो धन-जो रुपया-माल खरीदने में मार्च होता है उससे ये काम नहीं होते । वह पूंजी ही नहीं। क्योंकि उत्पादन में उससे सहायता ही नहीं मिलती।

कल्पना कीजिए कि अाप साल में सौ रुपये का "काशी सिल्क लेते है। जुलाहाँ को यह बात मालूम है। वे आपके लिए इतने का "सिल्क" तैयार रखते हैं। परन्तु जब तक कपड़ा तैयार नहीं होता तब तक तो आप रुपये देते नहीं । तब तक ता रुपये आपको सन्दूक्त में बन्द रहते हैं। जुलाहे अपनी