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पूँजी।

पूँजी खर्च करके कपड़ा बनाते हैं और जो लोग कपड़ा बनाने में उनकी मदद करते हैं उनको मज़दूरी भी वे अपनी पूँजी से देते हैं आप तो कपड़ा तैयार होने पर लेते हैं न ? अतएव न आपके पैसे (पूंजी नहीं) से कपड़ा ही बनता है और न आपके पैसे से मजदूरों ही को कुछ मिलता है। इससे यह सिद्धान्त निकला कि माल के खप से मजदूरों की रोज़ी नहीं चलती । पूँजी के खर्च होने से चलती है । यदि किसी माल का खप न होगा तो उसमें लगी दुई पूंजी निकाल ली जायगी और ऐसे माल की तैयारी में खर्च की जायगी जिलका खप होगा। जो कारखाना न चलेगा मजदूर उसे छोड़कर किसी चलते कारखाने में काम करने लगेंगे।

एक और उदाहरण लीजिए । कल्पना कीजिए कि बनारस का एक नव- जवान कुतुब-फ़रोश २०० रुपये की पूंजी से किताये वेचने का रोजगार करता है। कुछ दिनों में उसे शौकीनी सूझी। यह उस पूँजी से हर साल २५ रुपये निकाल कर इत्र माल लेने लगा। तीन चार वर्ष में उसकी पूँजी आधी ही रह गई । तब उसे होश हुआ और इत्र लेना उसने बन्द कर दिया । इस शौक़ीनी से कुत्तुब-फरोश ही का नुकसान हुआ । इन लेना बन्द करने से इत्र वाले का कुछ नुकसान न होगा और न इत्र बनाने के काम में लगे हुए मज़दूरों के पापण ही में कुछ कमी होगी । क्योंकि कुतुब-फ़रोश के २५ रुपये साल मिलने के पहले ही इन वाले का इन तैयार होता था और मज़दूरों को मजदूरी मिल जाती थी । इत्र बनाने में जो पूँजी लगती थो वह कुतुब-फरोश की न थी, इन वाले ही की थी। अतएव कुतुष-फ़रोश के २५ रुपये की गिनती पूँजी मैं नहीं हो सकती । अब यदि कुतुब-फरोश ही की तरह और लोग भी इन लेना बन्द कर दें तो क्या होगा? इन वाला अपनी पूंजी इत्र से निकाल लैगा और किसी दूसरे व्यवसाय में लगा देगा । जैसे जैसे उनकी बिक्री कम होती आयगी तैसेही तैसे वह इत्र का व्यवसाय कम करता जायगा । मजदूर भी उसे छोड़ते जायेंगे और जो काम नये जारी होंगे उन्हें करके अपना पोषण करेंगे । सारांश यह कि न इन चालेही का कोई विशेष नुकसान होगा, न मज़दूरों ही का। कभी कभी कोई रोजगार पकदम गिर जाने, और उसके कर्ता में दूसरा रोजगार करने की अक्. न होने, से उसे हानि है। सकती है । पर ऐसे उदाहरण बहुत कम होते हैं। ऐसी बातों की गिनती अपघाद में है, साधारण नियमों में नहीं । उन्हें मुत्तसना समझना चाहिए ।