प्रायः हमेशाही अच्छा होता है । अतएव शिक्षा का प्रचार पूंजी की उत्पादक शक्ति बढ़ाने का एक अद्भुत बड़ा कारण है।
विद्या और विज्ञान की वृद्धि के साथ साथ नये नये यंत्र बनते चले जाते हैं। उनके उपयोग से. श्रम फी उत्पादकता की तरह, पूंजी की भी उत्पादकता बढ़ती है । कलों की बराबरी हाथ नहीं कर सकते । जिस देश में फलों का अधिक प्रचार है उस देश की पूंजी की उत्पादक शक्ति बहुत बढ़ जाती है। योरप और अमेरिका में जितनी पूंजी है उतनी और किसी देश में नहीं । कारण यह है कि वहां यंत्रोही की सहायता से सब बड़े बड़े काम होते हैं ।
मालिफ चाहते हैं कि मजदूरों से काम तो बहुत लें, पर मजदूरी कम दें। मज़दूर चाहते हैं कि काम कम करें, पर मजदूरी अधिक मिले। इस तरह मालिक और मज़दूरों में हमेशा हितदिरोध रहता है। जितने हवृताल होते है सब प्रायः इसी हितविरोध के फल है। इस तरह के हड़ताल पहले पश्चिमी देशोंही में होते थे। पर अब यहां भी होने लगे हैं ! यह विषय महत्त्व का है। इससे इसका विचार अलग एक परिच्छेद में करने का इरादा है। वह इस पुस्तक के उत्तरार्द्ध में लिखा जायगा । मालिक और मजदूरों में हित-विरोध होने के कारण पूंजी की अर्थोत्पादक शक्ति बढ़ने नहीं पाती। इस दोष को दूर करने के लिए किसी किसी कारखाने या उद्योग-धन्धे के मालिक मजदूरों को भी अपने व्यवसाय में शरीक कर लेते हैं । या, नहीं तो, जो मुनाफ़ा उन्हें होता है इसका कुछ अंश मजदूरों को भी घाँट देते हैं ! इससे बड़ा लाभ होता है । काम करनेवाले मजदूर, कारीगर, या और मुलाज़िम मालिक के काम को अपना समझने लगते हैं और जी लगाकर काम करते हैं। इससे पूँजी की अर्थोत्पादक शक्ति बढ़ जाती है | थोड़ी पूंजी से बड़े बड़े व्यापार और व्यवसाय नहीं हो सकते । यदि बहुत से आदमो मिल कर एक कम्पनी खड़ी करें, और सब भादमी थोड़ी
थोड़ी पूँजी लगा कर एक बड़ी रकम इकट्ठा करें, तो वहुत बड़े बड़े व्यापार और व्यवसाय हो सके और पूँजी की अर्थोत्पादक शक्ति बटुत बढ़ जाय । उन्नत देशों में सब बड़े बड़े काम इसी तरह होते हैं। हिन्दुस्तान में जो रेलें चलती हैं उनमें से कुछ को छोड़ कर बाकी सब इसी तरह कम्पनियां स्नड़ी करके चलाई गई हैं । इस विषय का विचार आगे एक परिच्छेद में अलग किया जायगा। इससे यहां पर अधिक लिखने की जरूरत नहीं।