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सम्पत्ति-शास्त्र।

पूंजी का भी यही हाल है । उसे भी ज़मीन और मेहनत की वृद्धि के परिमाग में बढ़ाइए । क्योंकि विना पूँजी के काम नहीं चल सकता । और जब आपने सम्पत्ति के उत्पादक दो साधनों को बढ़ाया तब तीसरे को भी बढ़ाना ही पड़ेगा । अन्यथा आपका अभीष्ट सिद्ध न होगा। यह अकेले माएको पूँजो की बात हुई। देश की पूंजी का भी यही हाल है। जब किसी देश को सब पूँजी अत्यन्त लाभदायक कामों में लग चुकी है, उससे जितने मजदूरों का पोषगा होना चाहिए हो रहा है, उसमें जितनी सम्पत्ति उत्पन्न करने की शक्ति है उतनी अच्छी तरह ही रहो है; तब अधिक सम्पत्ति उत्पन्न करने का एकमात्र यही उपाय है कि उस पूंजी की वृद्धि की जाय ।

मतलब यह कि जब अर्थात्पत्ति के साधनों को उत्पादक शक्ति अपनी हद तक पहुँच जाती है. तब, यदि अधिक सम्पत्ति उत्पन्न करना हो ना, उन साधने ही की वृद्धि करना चाहिए । यह सम्पत्ति-शाख का एक व्यापक सिद्धान्त है।

दूसरा परिच्छेद ।
जमीन की वृद्धि ।

हर देश में थाड़ी बहुत ज़मीन जरूर हो परती पड़ी रहती है। उसमें खेती नहीं होता। अतएव जन्न खेती की सारी जमीन अपनी हद तक उत्पादक हो जाती है. उससे और अधिक नहीं हो सकती-तन सम्पत्ति बढ़ाने के लिए यह परती ज़मीनही काम में लाई जाती है । परन्तु इसमें एक बात है । वह यह है कि सब बर्च दे लेकर अब तक कुछ बच रहने की आशा नहीं होती तब तक किसान उपाय भर परती ज़मीन नहीं जोतते । क्यों जोते? यदि उन्हें कुछ मिलेहोगा नहीं. तो व्यर्थ क्यों ये जो फ़िशानी करेंगे और क्यों जातने बाने में रुपया लगावेंगे ? जहाँ आवादी कम है वहाँ अच्छी जमीन भी थोड़ी बहुत व जुती पड़ी रह सकती है। परन्तु जहाँ यह वात नहीं है वहाँ ऐसी जमीन अकसर परती नहीं पड़ी रहती। यदि वहाँ कोई पेसे फारया या साधन उपस्थित हो हसिनकी सहायता से परती ज़मोन उत्पादक दा सकती है, तो उसमें खेती होते लगती है।