पृष्ठ:सम्पत्ति-शास्त्र.pdf/८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६२
सम्पत्ति-शास्त्र।

अरुप सम्पत्तिवाला है वह बेचारा सञ्चय करेगा किस तरह ? इस दरिद्रता के कई कारण हैं जिनके विवेचन की यहाँ ज़रूरत नहीं। जरूरत यहाँ सिर्फ इतना ही कहने की है कि जिन्हें सम्पत्ति प्राप्त होती है उन्हें भविष्य का खयाल रखकर ज़रूर कुछ न कुछ सञ्चय करना चाहिए। दुसरा कारण सम्चय न करने का हमारा वेदान्त है । वेदान्त में लिखा दे कि संसार. मिथ्या है. मायाजालं है, बाजीगर का तमाशा है । जब संसार ही मिथ्या है तब धन, सम्पदा मादि सांसारिक चीजें भी मिथ्या. हुई । फिर भला मिश्या चीज़ों का सम्चय कोई क्यों करे ? सम्पत्ति-शारत्रवाले वेदान्त की बातें झूठ नहीं बतदाने। ये सच हो सकती हैं। पर जब आप इस पेन्द्रजालिक जगत् में रहने हैं तब उसकी चीजों से घृणा श्यों करते हैं ? उनका भी सञ्चय कीजिए और जब तक संसार में रहिए अच्छी तरह रहिए ? जब उससे अापनजात पाजायगे तब उसकोचीजों से भी नसात मिल जायगी।

सन्चय न करने के और भी कई कारण हैं जिनका उल्लेख पूंजी के प्रकरण में पहले ही हो चुका है । अतएव उनकी पुनरुक्ति की यहां आवश्य- कता नहीं।

आदमी को चाहिए कि वह यथाशक्ति सम्चय करे और उसे लाभदायक कामों में लगा कर अपनी पूंजी की वृद्धि करता रहे । इससे अकेले उली कर लाभ न होगा, किन्तु उसके सञ्चय की बदौलत किये गये व्यापार और व्यवसाय में लगे हुए हज़ारों, लाखों आदमियों का पेट भी पलेगा। यदि संसार सचमुच ही मिथ्श है, और यदि औरों की उदरपूर्ति करना पुण्य में दाखिल है, तो वेदान्तियों को भी इसमे कृतकृत्य और सन्तुष्टही होना चाहिए, असन्तुष्ट और अप्रसन्न नहीं।

किस फाममें-किस वाणिज्य-व्यवसाय में-पूँजी लगाने से उसकी वृद्धि होगी, यह बतलाना बहुत मुश्किल है। यह बात देश, काल, सामाजिक व्यवस्था और पूँजीचाले की बुद्धि और योग्यता पर अवलस्थित है। मनुष्य को चाहिए कि वह खूब समझ बूझकर अपनी पूंजी लगा जिसमें उसकी यथासम्भव वृद्धि होती रहे । जिस काम में अधिक लाभ की आशा हो वही करे। जिसमें लाभ की आशा कम हो उससे पूंजी निकाल ले। जो लोग या जो देश व्यापार-व्यवसाय में पके होते है ये हमेशा पैसाहो करते हैं। कम लाभ के कामों से पूँजी निकाल कर वे अधिक लास के कामों में लगाया